कविता
मनचाहा इतिहास
मंजूषा बिष्ट
हर शहर में
कुछ जगह जरूर ऐसी छूट गयी होंगी
जहाँ मनचाहा इतिहास लिखा जा सकता था
वहाँ बोई जा सकती थी
क्षमाशीलता की ईख भरी खेती
जिन्हें काटते हुए अँगुलियों में खरोंच कुछ कम होती
वहाँ ज़िद इतनी कम हो सकती थी
कि विरोधों के सामंजस्य की एक संभावना
किसी क्षत-विक्षत पौड़ी पर जरूर मिलती
वहाँ किसी भटकते मासूम की पहचान
किसी आतातायी झुंड के लिये
उसके देह की सुरक्षा कर रहे धर्म-चिह्न नही
मात्र उसका अपना खोया ‘पता’ होता।
वहाँ किसी खिड़की पर बैठी ऊसरता से
जब दैनिक मुलाकात करने एक पेड़ आता
जो उसे यह नही बताता कि;
उसने भी अब अपने ही अंधकार में रहने की शिष्टता सीख ली है
क्योंकि उसकी देह-सीमा से बाहर के बहुत लोग संकीर्ण हो गए हैं
लेक़िन ..
इतिहास के हाथ में बारहमासी कनटोप था
जिसे गाहे-बगाहे कानों पर धर लेना
उसे अडोल व दीर्घायु रखता आया है
शहर की कुछ वैसी ही जगह
अभी तक ‘वर्तमान’ ही घोषित हैं
मगर कब तक…!
परिचय
मंजुला बिष्ट
स्वतंत्र -लेखन। कविता व कहानी लेखन में रुचि।
उदयपुर (राजस्थान)में निवास
हंस ,अहा! जिंदगी,विश्वगाथा ,पर्तों की पड़ताल,माही, स्वर्णवाणी, दैनिक-भास्कर,राजस्थान-पत्रिका,सुबह-सबेरे,प्रभात-ख़बर समाचार-पत्र, समालोचन ब्लॉग,हस्ताक्षर वेब-पत्रिका ,वेब-दुनिया वेब पत्रिका, हिंदीनामा ,पोशम्पा ,तीखर पेज़ व बिजूका ब्लॉग में रचनाएँ प्रकाशित हैं।