कविता
“अथाह विवश हो चली हूँ मैं”
उन दिनों…
खुरदुरी जिह्वा की स्वाद ग्रन्थियाँ
चिलकती थी औषधियों की गंध पर
कंठ में जैसे बैरन हुई हवा ने
निर्ममता से बासी बुजा ठूंस दिया हो
ऊपर-नीचे लुढ़कती साँसों की टकराहट सुन
नज़दीकी दरवाज़े-खिड़कियाँ बन्द दिखी
वहाँ पर्दे पड़े थे अति सावधान होकर
जो,अपने ही आँगन में बेगाने होने के इश्तहार लगे
तो वहीं ,कुछ स्नेहिल हृदयों ने
दूर से कंठ में अनवरत जीवनमंत्र फूंके…जो
इस धरा में अक्षुण्ण प्रेम और दया की चिरस्थाई नागरिकता सिद्ध थे
उन लड़खड़ाती साँसों के मध्य
मैंने प्रार्थनाएं की हर उस साँस के लिए
जिसे वायरस ने उनके ही स्थान में
नितांत अकेला कर वध हेतु ललकारा है
मैंने मृत्यु को विनम्र आज्ञा दी कि
किसी को यूँ अकेले विदा होने की विवशता न दे
वे वैसे ही छोड़े इस संसार को
जैसे उनके संतुष्ट पुरखे रिक्त कर गए थे स्थान..
किसी नवागंतुक के लिए
पुतलियों को वाचाल होने का अभ्यास न था
लेक़िन,काल के उस दारुण-खण्ड में
मैंने साथी से पुतलियों के मार्फ़त खूब संवाद किया
जब साँसे अवरुद्ध हो असहाय थी ;
तब अंगुलियों ने कागज़-कलम के सहारे गृहस्थी सम्भाली
बेटू को कूची थामे रहने का लिखित हौसला दिया
मस्तिष्क अक्सर लताड़ता रहा मुझे
क्यों न अदृश्य स्वास्थ्य-शत्रु से अधिक सतर्क हुई ,लापरवाह!
तब ,आत्मा हस्तक्षेप करती हुई
सिरहाने बैठ मेरा कंठ सहलाती रही
कानों में बुदबुदाए कुछ किस्से
कि कुछ व्याधियाँ मृत्यु की झलक दिखाकर
हर लेती हैं हमारे विगत के सन्ताप,पीड़ाएँ
जैसे पूर्व निश्चित प्राप्त वय को रेंगते हुए
किसी सर्प ने मेह भरी रात्रि में केंचुल उतारकर
ऊर्जस्वित की हो अपनी व्यान-प्राणशक्ति
तुम भी स्वागत करो..इस नवजीवन का!
आत्मा के गवाक्ष कितने होते होंगे..
सर्वथा अनभिज्ञ हूँ मैं
लेक़िन हाँ!
इस साँसजनित पीड़ाओं से लड़ते-जूझते हुए
मेरे हिस्से के गवाक्ष में एक नवीन पगडण्डी आई है..
जिस पर कोई भी पगधूलि नहीं है
कोई पुरातन दिकसूचक नहीं है
अब मुझे इस पगडंडी पर यात्राएं करनी है
जिनकी संख्या भले ही कम हो
परन्तु यात्राओं की लंबाई के प्रति अंधमोह बढ़ रहा है
अथाह विवश हो चली हूँ मैं
इन दिनों…!
मंजुला बिष्ट, उदयपुर (राजस्थान )