कविता
“जस नि रे”
हरदेव नेगी
अब मैं पर भी क्वे जस नि रे,
तुमरि माया मा भि क्वे रस नि रे।।
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ब्वना त् धों छन तुम छैंच अभि भी माया ,
दिल मा कुछ होर बात अर गिच्चा मा कुछ होर बात रे।।
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कु घड़ि कु खिल्यूं सी बुरांसो फूल व्हेगि ज्यिंदगी,
भौंर जन दगड़या व्हेग्या तुम, पराग से भि क्वे मतलब नि रे।।
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गाळी छौं खांणू अब तुम जना माया का सौदेरूं का,
बल ज्यौठा मैना माया कु फूल खिलौंण मा, त्वे दौ धरम कुछ भि नि रे।।
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फागुंण चैत बरखी नी कोंपळा माया का खिलिन नी,
अब खिलि क्य फैदा व्हे बल, जब द्वार मोरू मा भि त्वे जगा नि रे।।
हौंदा सच्चा मायादार फूलों का, मिथैं चैत मा खिलंण देंदा
पड़ म्यारा घौर मा आग लगै,तुम मनख्यों मा क्वे मनख्यात नि रे।
अब मैं पर भी क्वे जस नि रे,
तुमरि माया मा भि क्वे रस नि रे।।
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लिख्वार
हरदेव नेगी
गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग)
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