आपदा
केदारनाथ आपदा-त्रासदी का एक दशक…
गजेन्द्र रौतेला
【हमारे स्मृतिपटल से फिर से वो विभीषिका मिटने लगी है।जिन डैम और परियोजनाओं को इस आपदा का एक कारक माना जा रहा था उससे कई गुना ज्यादा नुकसानदायक बड़ी-बड़ी विभिन्न परियोजनाओं का निर्माण आज विकास के नाम पर पर्यावरण का नुकसान कर स्थानीय जलवायु के चक्र को असंतुलित कर रहा है।ये पिछले कुछ वक्त से साफ दिखाई दे रहा है इससे किसी को भी इंकार नहीं होगा।】
केदारनाथ आपदा को आज एक दशक हो गया।इन दस वर्षों में मन्दाकिनी में करोड़ों-अरबों लीटर पानी गुजर गया लेकिन आज भी किसी भी छोटी बड़ी आपदा आने पर स्थिति फिर से वही दिखने लगती है।केदारनाथ आपदा के बाद राज्य से लेकर केंद्र तक न जाने कितनी घोषणाएं हुई कितनी योजनाएं बनी लेकिन आज भी जोशीमठ जैसी घटना होने पर फिर वही स्थिति ‘प्यास लगने पर कुआँ खोदने’ की नज़र आती है।उत्तराखण्ड के ज्यादातर पर्वतीय जिले आपदा की दृष्टि से बेहद संवेदनशील हैं और जोन पाँच में आते हैं जिसके लिए किसी भी प्रकार की आपदा पूर्व और पश्चात की तैयारियों के साथ-साथ मानवीय गरिमापूर्ण राहत और पुनर्वास की ठोस नीति की माँग की आवाज़ केदारनाथ आपदा के बाद जोरों से उठी थी लेकिन उसके बाद फिर उस पर क्या हुआ पता ही नहीं चला।यदि इस पर ठोस नीति बनी होती तो अभी हाल में जोशीमठ में इसकी झलक मिलती।लेकिन जैसा कि हम जानते हैं हम बहुत जल्दी इस तरह की चीजों को भूल जाने के आदी हो चुके हैं । केदारनाथ आपदा के बाद सभी नदी-गाड़-गदेरों से डरकर दूरी बनाने लगे थे इन दस वर्षों में फिर इनके प्राकृतिक बहाव क्षेत्र के आसपास निर्माण कार्य सामान्य सी बात होने लगी है।
हमारे स्मृतिपटल से फिर से वो विभीषिका मिटने लगी है।जिन डैम और परियोजनाओं को इस आपदा का एक कारक माना जा रहा था उससे कई गुना ज्यादा नुकसानदायक बड़ी-बड़ी विभिन्न परियोजनाओं का निर्माण आज विकास के नाम पर पर्यावरण का नुकसान कर स्थानीय जलवायु के चक्र को असंतुलित कर रहा है।ये पिछले कुछ वक्त से साफ दिखाई दे रहा है इससे किसी को भी इंकार नहीं होगा। अभी पिछले कुछ महीनों के पहाड़ी इलाकों में मौसम का रिकॉर्ड अगर देखें तो बेमौसमी बरसात और भारी बर्फवारी इसके ताजा उदाहरण हैं जो कतई भी अच्छे संकेत नहीं हैं।लेकिन फिर भी हम इस सबके प्रति सचेत नहीं हैं।यह एक बड़ी विडंबना ही है कि हमारी मानसिकता तात्कालिक नफे-नुकसान की ज्यादा बन चुकी है, बजाय कि दीर्घकालिक के। और अफसोस तो तब और भी होता है जब पर्यावरण और जलवायु परिवर्तन जैसे विषय हमारे लिए बेहद गैरजरूरी और गौंण हो जाते हैं।जबकि हकीकत में ये हमारे अस्तित्व के बेहद जरूरी विषय हैं। केदारनाथ आपदा में जन-धन का जो नुकसान हुआ वह तो हुआ ही लेकिन एक और चीज जिसका प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष दोनों रूप से हुआ उसमें यहाँ से पलायन की गति में एकाएक वृद्धि हो जाना भी रहा।जिसमें कुछ मजबूरी भी रही तो कहीं भय और सुरक्षा का बोध भी ।इन सभी कारणों और स्थितियों से यहां के समाज और संस्कृति के तानेबाने पर जो असर हुआ है वह अब धीरे-धीरे सामने आने लगा है।जिस तरह से अभी जोशीमठ के पीड़ितों को किसी सुरक्षित स्थान पर बसाने की चर्चा जोरों पर रही उसी तरह केदारनाथ आपदा के बाद भी रही थी जो अब हमारे स्मृतिपटल से ओझल हो चुकी है।
बहरहाल कोई भी आपदा समाज को एकजुट भी करती है तो बहुत कुछ सिखाती भी है।सवाल सिर्फ इतने भर का है कि अंततः वह हमें कितने लंबे वक्त के लिए सचेत रख सकती है।अंत में उन सभी पीड़ितों को सलाम जो आज भी सब कुछ खोकर अपने दम पर अपने जीवन संघर्ष की लड़ाई पूरी शिद्दत से लड़ रहे हैं और उन दिवंगतों को विनम्र श्रद्धांजलि और नमन जिन्होंने असमय इस त्रासदी में अपनी जान गंवाई।
गजेन्द्र रौतेला