कविता
प्यार
ध्रुव गुप्त
कल अचानक ही मिल गई मुझे
घर के सामने वाले पेड़ पर
एक अकेली गिलहरी
नटखट, चपल और सतर्क
मुझे देखता देखकर
पत्तों के पीछे जा छिपी वह
पत्तों से झांकती
उसकी चंचल आंखों की
मासूम बदमाशियों ने
कौतूहल से भर दिया मुझे
मैंने पेड़ के नीचे बैठकर
शैतान गिलहरी को
इशारों-इशारों में कहा –
प्यार
शरमाई गिलहरी ने
इशारों-इशारों में ही कहा मुझे –
प्यार
उसके बाद खिसक आई वह
मेरे कुछ और पास
उसकी नर्म देह पर
देर तक टिकी रही मेरी आंखें
मेरे लहू में टिकी रह गई
देर तक गिलहरी।
रचनाकार : ध्रुव गुप्त, पटना ( बिहार )