आलेख
महारास की रात ‘शरद पूर्णिमा’
“नीरज कृष्ण“
शरद चांदनी बरसी / अंजुरी भर कर पी लो / ऊंघ रहे हैँ तारे / सिहरी सरसी / ओ प्रिय कुमुद ताकते / अनझिप क्षणों में / तुम भी जी लो। : अज्ञेय
भारत वर्ष धर्म संस्कृति की विराटता को अपने में अनादिकाल से संजोए हुए है। यहां देवता पितर, ऋषि, प्रकृति पशु, पेड़-पौधे सभी की किसी न किसी रूप में पूजा एवं आराधना की जाती है। ऋतु प्रधान देश होने से यहां प्रत्येक ऋतु में विशेष उत्सव मनाए जाते हैं।
हमारे देश में, हमारे सनातन धर्म में साल का प्रत्येक दिन ही कोई न कोई पर्व होता है। किसी न किसी देश में, किसी न किसी जाति में, यदि सबका हिसाब लगाया जाय तो साल का प्रत्येक दिन ही पर्व है। क्योंकि हमारे यहाँ भगवान् के सब अवतार हुए और अनतानंत महापुरुष भी हमारे देश ने ही आये इसलिए पर्वों की भरमार है।
अश्विन मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को शरद पूर्णिमा कहा जाता है। शरद पूर्णिमा को कोजगरी पूर्णिमा या रास पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। इस पूर्णिमा को कौमुदी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। कहा जाता है इस दिन है चंद्रमा धरती पर अमृत की वर्षा करता है। इस दिन प्रेमावतार भगवान श्रीकृष्ण, धन की देवी मां लक्ष्मी और सोलह कलाओं वाले चंद्रमा की उपासना से अलग-अलग वरदान प्राप्त किए जाते हैं। शरद पूर्णिमा का चंद्रमा और साफ आसमान मानसून के पूरी तरह चते जाने का प्रतीक है।
पौराणिक मान्यताओं के मुताबिक इसी दिन मां लक्ष्मी का जन्म हुआ था। इसलिए धन प्राप्ति के लिए भी ये तिथि सबसे उत्तम मानी जाती है। इसे ‘कोजागर पूर्णिमा’ भे कहा जाता है। कहते है इस दिन धन की देवी लक्ष्मी रात के समय आकाश में विचरण करते हुए कहती हैं, ‘को जाग्रतिं, संस्कृत में को जाग्रति का मतलब है कि ‘कौन जगा हुआ है’ माना जाता है कि जो भी व्यक्ति शरद पूर्णिमा के दिन रात में जगा होता है मां लक्ष्मी उन्हें उपहार देती हैं।
वहीं वैज्ञानिक दृष्टिकोण से इस दिन चंद्रमा की दूरी पृथ्वी से काफी दूर बताई गई है। इस दौरान अंतरिक्ष के सभी ग्रहों से निकलने वाली पॉजिटिव एनर्जी चांद की किरणों से सीधे धरती पर पहुंचती है। सामान्य दिनों में चंद्रमा पृथ्वी से 4 लाख 8 हजार किलोमीटर की दूरी पर रहता है। लेकिन शरद पूर्णिमा की रात चंद्रमा 4 लाख 6 हजार 394 किलोमीटर की दूरी पर रहेगा। जबकि चांद जब 3 लाख 60 हजार की दूरी पर रहता है तो उसे सुपरमून के नाम से जाना जाता है।
वैज्ञानिक दृष्टि से शरद पूर्णिमा की रात स्वास्थ्य और सेहत के लिए भी बहुत फायदेमंद होता है। चन्द्रमा से निकलने वाली किरणों में विशेष प्रकार के लवण और विटामिन होते हैं। ऐसे में जब ये किरणें खाने–पीने के सामान पर पड़ती हैं तो उनकी गुणवत्ता और ज्यादा बढ़ जाती है। यही कारण है शरद पूर्णिमा की रात में दूध और गुड़ में बनी खीर को शीतल चांदनी में भिंगोकर खाने की परंपरा है। कहते हैं कि इससे खीर में औषधीय गुण आ जाते हैं। अपने बचपन में हममें से बहुत लोगों ने गांव में कदंब के वृक्ष के नीचे पत्तों से झरती चांदनी का आनंद लिया होगा। चांदनी में नहाई शीतल खीर भी खाई होगी। कदंब के पेड़ लुप्त हो चुके हैं। शहरों की चकाचौंध में आकाश का धवल चांद मद्धिम पड़ चुका है। कोलाहल ने इस रात का एकांत छीन लिया। जो लोग आज भी दूरदराज के गांवों में हैं वे भी आधुनिकता और भौतिकता में रम कर इस रात के महत्व और महत्ता को भूल चुके हैं।
हमारे देश में जितने भी पर्व मनाये जाते हैं उन सबमें सर्वश्रेष्ठ पर्व है- शरद पूर्णिमा। वैसे कुछ लोग जन्माष्टमी को कहते हैं, कुछ होली को, अनेक लोग अपनी अपनी भावना से पर्वों की महत्ता बताते हैं किन्तु माधुर्य भाव से श्रीकृष्ण की उपासना करने वालों के लिए शरद पूर्णिमा ही सबसे बड़ा पर्व है क्योंकि शरद पूर्णिमा के दिन ही लगभग 5000 वर्ष पूर्व पूर्णतम पुरुषोत्तम श्रीकृष्ण ने भाग्यशाली जीवात्माओं के साथ ‘महारास’ किया था अर्थात् आनंद की जो अंतिम सीमा है, उस अंतिम सीमा वाले आनंद को राधाकृष्ण ने जीवों को दिया था।
‘रस’ शब्द से बना है ‘रास’। ‘रसानां समूहो रासः’. रस ही अनंतमात्रा का होता है फिर दिव्यानंदो में सबसे उच्च कक्षा का रस, समर्था रति वालों का, उसका कहना ही क्या है ! उस रस का भी जो समूह है उसको रास कहते हैं। वैसे तो भगवान् का एक नाम है रस।
यहाँ पर कहा है रसतम: परम:. पहले तो कह दिया ‘रसो वै सः’ वो रस है। ठीक है लेकिन वह परम रसतम भी है। देखो यह रस ब्रम्हानंद वाले भी पा चुके इसलिए ये लोग कहते हैं ‘रसो वै सः’. आनंद मिल गया इनको, आनन्दो ब्रम्ह। लेकिन जिनको महारास मिला, वो ‘रसो वै सः’ से संतुष्ट नहीं है तो उनके लिए वेद की ऋचा ने कहा ‘स एव रसानां रसतम: परम:’. वही ब्रम्ह जो रसरूप है, आनंद रुप है वही रस का समूह, एक ‘तम’ प्रत्यय होता है संस्कृत में, उसका मतलब होता है सर्वोच्च रस। गुह्य, गुह्यतर, गुह्यतम। तो तम जहाँ आ जाए उसका मतलब होता है सर्वोच्च रस। आगे और कुछ नहीं। जैसे पुरुषोत्तम। पुरुष जीव भी है, पुरुष ब्रम्ह भी है। पुरुष सब अवतार हैं, लेकिन श्रीकृष्ण पुरुषोत्तम हैं, उत्तम, अंतिम। उच्च में तम् प्रत्यय हुआ ‘उत्’ ऊँचाई में, ‘तम्’ सर्वश्रेष्ठ। सर्वोच्च। तो ये रास का अर्थ हुआ।
कई उत्सव ऐसे हैं जिसमें उपासना एवं आराधना का संबंध सीधे आत्मा और परमात्मा से जोड़ने वाला होता ऐसा ही पर्व आश्विन शुक्ल पक्ष पूर्णिमा यानी शरद पूर्णिमा को मनाया जाता है। जिस दिन यमुना के तट पर भगवान श्रीकृष्ण ने गोपियों के साथ महारास किया था। कहा जाता है कि आज भी निधिवन में वह रहस्यात्मक लीला शरद पूर्णिमा को संपन्न होती है।
शास्त्रों में शरद ऋतु को अमृत संयोग ऋतु भी कहा जाता है, क्योंकि शरद की पूर्णिमा को चन्द्रमा की किरणों से अमृत की वर्षा का संयोग उपस्थित होता है। वही सोम चन्द्र किरणें धरती में छिटक कर अन्न-वनस्पति आदि में औषधीय गुणों को सींचती है।
श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्द में रास पंचाध्यायी में भगवान श्रीकृष्ण द्वारा इसी शरद पूर्णिमा को यमुना पुलिन में गोपिकाओं के साथ महारास के बारे में बताया गया है। मनीषियों का मानना है कि जो श्रद्धालु इस दिन चन्द्रदर्शन कर महारास का स्वाध्याय, पाठ, श्रवण एवं दर्शन करते हैं उन्हें हृदय रोग नहीं होता साथ ही जिन्हें हृदय रोग की संभावना हो गई हो उन्हें रोग से छुटकारा मिल जाता है।
समस्त रोग कामनाओं से उत्पन्न होते हैं जिनका मुख्य स्थान हृदय होता है। मानव अच्छी-बुरी अनेक कामनाएं करता है। उनको प्राप्त करने की उत्कृष्ट इच्छा प्रकट होती है। इच्छा पूर्ति न होने पर क्रोध-क्षोभ आदि प्रकट होने लगता है। वह सीधे हृदय पर ही आघात करता है। वास्तव में मानव खुद अपने लिए समस्या पैदा करता है लेकिन वह चाहे तो समाधान भी उसके पास है। शरद पूर्णिमा इन समस्त बिंदुओं पर चिंतन कर हृदय से सांसारिक रस हटाकर भगवान के महारस से जुड़ने का उत्सव है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार शरद पूर्णिमा के दिन भगवान कृष्ण ने ऐसी बांसुरी बजायी कि उसकी जादुई ध्वनि से सम्मोहित होकर वृंदावन की गोपियां उनकी ओर खिंची चली आई थी। जो जैसी थीं वैसी ही एक दूसरे को धकियाती हुई गोपियाँ उस अनंगवर्धन सुर की दिशा में भाग चलीं। स्वजनों द्वारा बहुत रोकने पर भी वे रुकीं नहीं। कुछ गोपियाँ घरों के अंदर रह गई थीं, उनके पिता, पति और भाई बन्धुओं ने बाहर से दरवाजे बंद कर दिए थे। बाहर निकलने का मार्ग न मिलने पर उन गोपियों ने अपनी आँखें बंद कर लीं और कृष्ण की भावना से युक्त हो गईं। कृष्ण के विरह की असहनीय ज्वाला में उनके सारे पाप जल गए। सभी अशुभ नष्ट हो जाने से उन गोपियों के हृदय निर्मल हो गए थे। ध्यान मग्न होने पर उनके निर्मल हृदय में कृष्ण प्रकट हो गए। गोपियों ने प्रेमावेग से कृष्ण का गाढ़ आलिंगन किया। आलिंगन से प्राप्त होने वाले आनंद से गोपियों के सभी पुण्य भी क्षीण हो गए। पाप और पुण्य से निवृत्त हो जाने के कारण वे तत्काल अपने शरीर से मुक्त हो गईं।
इस प्रसंग में अत्यंत महत्वपूर्ण सूत्र अंतर्निहित है। कृष्ण के विरह की असहनीय ज्वाला में उनके सारे अशुभ, अमंगल और पाप जल गए। इस प्रकार गोपियों के त्रिगुणमय शरीर के तम और रज अंश का नाश हो गया। अशुभ अमंगल के नष्ट होने के कारण ही उनके शुद्ध सत्वमय मानस में कृष्ण का आविर्भाव हुआ। मानस में प्रकट हुए कृष्ण प्रगाढ़ आलिंगन से मिलने वाले आत्यंतिक आनंद से गोपियों के सभी शुभ, मंगल और पुण्य भी नष्ट हो गए । अब सत्व के भी नष्ट हो जाने से उनके त्रिगुणमय शरीर को लुप्त होना ही था। अब उन गोपियों की आत्मा का परमात्मा कृष्ण में विलय हो गया। महारास में सम्मिलित होने वाली गोपियों से इन गोपियों का सौभाग्य कहीं बड़ा था।
यमुना तट पर भगवान श्रीकृष्ण के साथ महारास में उपस्थित गोपियां कोई सामान्य स्त्रियां नहीं थी।श्रीकृष्ण ने अपनी प्राणशक्ति, जीवनीशक्ति का बंसी में समावेश कर क्लीं ध्वनि को प्रतिध्वनित किया। जिन गोपियों को बंसी बजाकर भगवान को बुलाना पड़ा था, उन साधन सिद्धा गोपियों में अनेक वर्ग हैं। इनमें से कुछ गोपियां तो जनकपुर धाम से पधारी हैं जिन्हें भगवती सीता जी की कृपा प्राप्त है।
इसी प्रकार श्रुतियों ने जब गोलोक धाम का दर्शन किया तो भगवान की छवि देखकर सम्मोहित हो गईं। उन श्रुतियों ने रस माधुर्य के आस्वादन की कामना से प्रियतम के रूप में भगवान को पाना चाहा। त्रेतायुग में ही इन ऋषियों के अंतःकरण में भगवान के मुरली मनोहर गोपाल वेष में निष्ठा थी। परंतु भगवान को धनुष धारण किए वनवासी रूप में जब इन ऋषियों ने देखा तो वे पुकार उठे- प्रभु! हम तो आपकी रासलीला में प्रवेश पाने की प्रतीक्षा में तप कर रहे हैं। श्रीराम ने कहा तुम सभी ब्रजमंडल में गोपी बनकर प्रकट हो जाना। यथा समय तुम्हें रासलीला में प्रवेश का अधिकार प्राप्त हो जाएगा।
ऐसा माना जाता है कि कृष्ण ने उस रात हर गोपी के लिए एक कृष्ण बनाया। पूरी रात कृष्ण गोपियों के साथ नाचते रहे, जिसे ‘महारास’ कहा जाता है। मान्यता है कि कुश ने अपनी शक्ति के बल पर उस रात को भगवान ब्रह्म की एक रात जितना लंबा कर दिया। ब्रह्म की एक रात का मतलब मनुष्य की करोड़ों रातों के बराबर होता है। यही वो दिन है जब चंद्रमा अपनी 16 कलाओं से युक्त होकर धरती पर अमृत की वर्षा करता है।
हिन्दू धर्म में मनुष्य के एक-एक गुण को किसी न किसी कला से जोड़कर देखा जाता है। माना जाता है कि 16 कलाओं वाला पुरुष ही सर्वोत्तम पुरुष है। कहा जाता है कि श्री हरि विष्णु के अक्तार भावान श्रीकृष्ण ने 16 कलाओं के साथ जन्म लिया था। राम 12 कलाओं के ज्ञाता थे तो भावान श्रीकृण सभी 16 कलाओं के ज्ञाता हैं। चंद्रमा की सोलह कलाएं होती हैं उपनिषदों अनुसार 16 कलाओं से युक्त व्यक्ति ईश्वरतुल्य होता है।
हमने सुन रखा है कि कुमति, सुमति, विक्षित यूढ़, क्षित, मूच्छित, जाग्रत, चैतन्य, अचेत अदि ऐसे शब्दों को जिनका संबंध हमारे मन और मस्तिष्क से होता है, जो व्यक्ति मन और मस्तिक से अलग रहकर बोध करने लगता है वही 16 कलाओं में गति कर सकता है। चंद्रमा के प्रकाश की 16 अवस्थाए हैं उसी तरह मनुष्य के मन में भी एक प्रकाश है। चंद्रमा को वेदं-पुराणों में मन के समान माना गया है- चंद्रमा मनसों जात:। जिसकी अवस्था घटती और बढ़ती रहती है। चंद्र की सोलह अवस्थाओं से 16 कला का चलन हुआ।
【नीरज कृष्ण】