कविता
“मन”
मधुबाला पुरोहित
मन की अठखेलियो से ,
हर रोज जिया करती हूँ ।
हृदय पटल के द्वार पर,
गुलाब लिये फिरती हूँ ।।
कभी कुन्दन,कभी गुन्जन
कभी हो मन मयूरा ।
पलकें अपलक झपकाती हूँ,।
मंद -मंद मै मुस्काती हूँ ।।
मन की अठखेलियो से,
हर रोज जिया करती हूँ ।
हृदय पटल के द्वार पर,
गुलाब लिये फिरती हूँ ।।
फूल- फूल और डाली- डाली।।
सपनों जैसी आती जाती।
शब्द लता जो मन में बिखरे ,
उनको होंठो से कह जाती हूँ ।।
मन की अठखेलियो से,
हर रोज जिया करती हूँ ।
हृदय पटल के द्वार पर,
गुलाब लिये फिरती हूँ ।।
थिरकूं मै तो, उपवन-उपवन।
अल्हड़ मृगनयनी ,हो जैसे ।
सावन की हो रिमझिम बारिश ,
या खिला हुआ मधुमास यहाँ हो।
शोला ,शबनम बन जाती हूँ ।
रंग में इसके रंग जाती हूँ।
मन की अठखेलियो से ,
हर रोज जिया करती हूँ ।
हृदय पटल के द्वार पर,
गुलाब लिये फिरती हूँ ।।