आलेख
‘मौसमी’
कहानी
‘प्रतिभा की कलम से’
३०-३२ साल की उम्र रही होगी ‘मौसमी’ की, मगर नजर आती २५ वाली । मासूम इतनी लगती कि लगता ही न था कि शादीशुदा है, दो बच्चों की माँ है । लगना ही था । जो दिन – रात पति की चिन्ता करती हैं उनके चेहरे पर कहां इतनी मासूमियत रह पाती है। जिम्मेदारी निभाने की फिक्र से परिपक्वता आने लगती है । चाहती तो हर स्त्री यही है ।दिखाना और मानना भी यही चाहती है कि उसका पति उससे सबसे ज्यादा प्रेम करता है ।लेकिन पति का भी कसूर क्या ? मानव स्वभाव है आखिर ! जो जिस्म हासिल हो गया उसमें धड़कने वाले दिल की कद्र कहां !
ऑफिस को देर होते वक्त तौलिया, मोजे, रूमाल,अंडरगारमेंटस ढ़ूंढ़ते हुए उसे ‘मौसमी’ शिद्दत से याद आती और वो आवाज भी ‘मौसमी’ को ही लगाता । जो स्वाद उसकी जीभ ढ़ूंढ़ती थी वही उसे नाश्ता करते हुए डायनिंग टेबल पर मिल जाता तो वो एक नजर ‘मौसमी’ पर डालता जरूर ।
ऑफिस से आकर बच्चे माँ के साथ बैठे होमवर्क कर रहे हैं तो उस वक्त भी एक नजर ‘मौसमी’ पर डालकर वो संतुष्ट भाव से पूरे घर को देखता । उस स्त्री का हर रूप सुन्दर था । बावजूद इसके, उसके
पत्नी रूप की अनदेखी होती रही । एक दिन उसे किसी ने देखा । ऐसा नहीं कि इससे पहले उसे किसी ने न देखा हो । जिसने भी देखा उसने मन में एक इच्छा की तरह देखा कि काश ! ऐसी बेटी, बहू या फिर पत्नी उसकी होती ।
घरेलू काम करने में उसे थोड़ी उलझन महसूस होती इसलिए वो हाथों में ज्यादा चूड़ियां न पहनती । देखा था कि हर वक्त बिंदी लगाते रहने से उसके माँ के माथे पर एक दाग सा हो गया था । इसलिए हर वक्त बिंदी भी वो न लगाती । सिंदूर से तो उसे वास्तव में एलर्जी थी । जब लगाती तो हाथ बार-बार माथे पर जाता और न चाहते हुए भी खुजलाते-खुजलाते सिंदूर की जगह वहां खून जम जाता । विवाहित महिला होने के नाते भी ये सब धारण करने की बाध्यता न थी क्योंकि पति ने कभी ध्यान दिया ही नहीं कि उसने आज बिंदी नहीं लगायी ,माँग नहीं भरी या हाथों में चूड़ियां नहीं खनक रही हैं ।
हां, साड़ी पहनने का मौसमी को बड़ा शौक है । मगर साड़ी के साथ समुचित श्रृंगार करने में उसे थोड़ा ज्यादा वक्त लग जाता । तैयार होने के बाद वो कितनी भी सुन्दर क्यों न लगती हो लेकिन पति को इंतजार करना बिल्कुल न सुहाता । इसलिए अधिकतर वो ‘मौसमी’ को साड़ी पहनने से मना कर देता । कहता – ‘फटाफट सलवार- सूट पहन लो या जींस’।
हां तो ! ‘जिसने’ उसे देखा उसने ये सब नहीं देखा । उसने बस वो चेहरा देखा और वो उन आँखों में डूब कर रह गया । लेकिन वो खुद भी शादीशुदा था तो कुछ दिल की बात कह पाना तो उसके लिए भी डूब कर मर जाने वाली बात होती ।
‘मौसमी’ ने भी उसे देखा मगर किसी और खयाल से न देखा । बस शादी से पहले कॉलेज जाने वाली किसी लड़की की तरह देखा । एक बार स्काउट – गाइड के कैम्प में कुछ दिन के लिए गई थी । वहां अन्य बीस छात्र – छात्राओं के साथ एक M.Sc. मैथ्स वाला लड़का भी आया था । उस पढ़ाकू गंभीर किस्म का लड़के का मन शाम को उसके साथ बैटमिंडन खेलते हुए डोलता रहता कॉक की तरह। लेकिन खेल खत्म होते ही वो फिर शांत,गंभीर हो जाता पहले की तरह ही । क्योंकि मौसमी चंचल तो थी नदी की तरह मगर उसने कभी अपनी बाँहे नहीं फैलाई उसके तट पर बैठे शांत स्थिर व्यक्ति की तरफ । इसलिए चंचल सौन्दर्य निहारने वाला भी बस चुपचाप अपने ह्रदय में उस नदी को भर, बिना वहां पाँव डुबाऐ लौट आता अपने घर की तरफ । हाँ, नदी जैसी ही तो थी वो । एक भी बूंद इधर – उधर छलकाये बगैर अलमस्त अपने-आप में बहती हुई दूधिया रंगत लिए निर्मल मन वाली लड़की । नदी तो वो आज भी थी, लेकिन जिन्दगी के मोड़ों पर जब कई – कई परेशानियों की रेत जमा होने लगी तो वो भी कई- कई धाराओं में बंट कर अलग – अलग रास्तों से बहने लगी । कोई धारा कम पानी होने की वजह से झुंझलाती सी नजर आती । तो कोई उदास भाव से बस बहने से मतलब रखती । बावजूद इसके उसका एक भाग आज भी अलमस्त बह रहा था । ये धारा पंहुचती कहीं नहीं थी । पर वो बहती निरंतर थी । और बहते- बहते वो ये भी भूल गई थी कि वो निकलती कहां से है । खैर अलमस्त धारा और अधिक वेगवती हुई जब मौसमी ने जाना कि वो उसे अच्छी लगती है ।
हां तो अच्छा लगने में बुरा क्या है ? अच्छा लगने के लिए ही तो लड़कियाँ शादी करके पत्नी बन जाती हैं । अच्छा लगने के लिए ही अपनी माँ का प्यार मायके में छोड़कर वो ससुराल में सास की लाड़ली बहू बनने के लिए हर जतन करती हैं । और अच्छे लगने के लिए ही मौसमी का उसके दिल को अच्छा लगना,अच्छा लगने लगा था । शाम को ढ़लते सूरज के साथ जब वो चाय पीती तो कप पर कल्पना के पंख लगाकर उसका मन पसंदीदा फूलों वाला दुपट्टा ओढ़कर चला जाता एक पुल पर ।जहाँ ऑफिस से लौटते हुए रुक जाती उसकी राह भी । वो पहले हंसती, फिर मुस्कुराती और फिर खिलखिलाती । मौसमी की खिलखिलाहट में खिल जाता ‘वो’ ऑफिस वाला थका – हरा तन – मन भी ।बातें क्या ? कुछ भी तो नहीं । लेकिन मुलाकातें होती रहीं । हकीकत में तो हर दूसरी मुलाकात में ही जहां पहली मुलाकात अपनी चमक खोती हुई सी लगती है, वहां ये खयाली मुलाकातें हर दिन ताजे फूल की तरह खिली हुईं लगती । इंसान के वश में नहीं किन्तु समय इस पर जरूर वश चलाता है कि प्रिय से प्रिय स्थिति को भी वो अधिक समय तक टिकने नहीं देता ।
व्यस्तताऐं बढ़ गईं । नहीं देख पाती थी मौसमी कई बार बहुत दिनों तक ढ़लता हुआ सूरज । तो सूरज लावा बन के ढ़लता था उन दिनों उसके दिल में ।
पर पुल अब भी दोनों के दिलों के बीच कायम था ।
संबंध यदि प्रवाह को रोकते हैं तो उन्हें बनाये रखने का औचित्य क्या ! किन्तु प्रेम सर्वदा उचित है यदि जीवन में ऊर्जा और गति को प्रवाहमान बनाये रखते हों तो !
बिना प्रेम के जिंदगी जीती-जागती लाश सी महसूस होती है । और प्यार तो निर्जीव वस्तुओं में भी जान फूंक देता हो जैसे ।
दिन-भर अनेक प्रेमी जोड़ों की पदचाप सुनता धूप सेंकता हुआ पुल ! सोचता है कि जब रात को चाँदनी ओढ़कर सो जाऊंगा मैं , तब आयेगी वो फूलों वाला दुपट्टा सिर पर डाले हुए । आयेगा वो भी दोनों हाथ बढ़ाऐ मुस्कराता हुआ । जब कुछ बोल नहीं पायेंगे दोनों, तो ‘प्यार’ कहेगा उनसे – ‘इसी तरह मिलते रहा करो हमेशा । मैं बना हूं तुम्हारे लिए ही’ ।
और सोचकर मुस्कराया पुल ज्यूं फिर नदी के होठों की तरह ।
प्रतिभा नैथानी