आलेख
वो जाना नवंबर का…
✍️ राजीव नयन पाण्डेय
बालकनी में बैठे बैठे दूर ढलते सूरज को देख मन ही मन बस यहीं सोच रहा था कि अब क्या सोचूं ❓ जब सोचने के लिए रह ही नहीं गया.. क्यों कि..देखते देखते लगभग पूरा साल बीतने को हैं।
उदास मन से ऊपर देखा तो आकाश में एक अलग ही सुनापन भरा सन्नाटा सुनाई दे रहा था, गोधूलि की बेला पक्षियों के पश्चिम से पूरब की और लौटना वो भी बिना चहचहाहट के एकदम शांत, मानो उनके पास भी कुछ कहने को नहीं रह गया हो।
आस पास माहौल में एक अजीब सी उदासी छाई हुई थी, वो उदासी जो दीपावली के अगले दिन की होती हैं, वो अब हर शाम होते होते महसूस होने लगी थी। सूरज के ढलते ही एक चुभन सी ठंड के आने से जो सिहरन सी महसूस होने लगती है, वो महसूस होने लगी थी, और जो महसूस हो रहा था, वो जो किसी अपने के चले जाने से महसूस होती हैं, वो उदासी जब मन किसी से कुछ कहने को, पर साथ कोई सुनने वाला न हो, यानि मन की पीढ़ा जो ना कहा जा सके और ना ही कहे बिना रूके जा सके, बस वही महसूस हो रहा था।
वैसे तो अक्टूबर के बाद मौसम बेरूखी वाला ऐसे ही नहीं हो जाता, कुछ भी अच्छा नहीं लगता.. क्यों कि जिस साल को अच्छी तरह से खुश हो कर जीवन जीया, वो बस अगले कुछ ही दिनों में चला जाऐगा,शायद इसीलिए किसी विद्वान ने सही ही कहा है कि किसी को यह जानते हुए भी जाने देना कि “जाना हिंदी की सबसे खौफनाक क्रिया है।”
✍️ राजीव नयन पाण्डेय (देहरादून)