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उधर के मान्स..इधर के मिनख

कविता

उधर के मान्स..इधर के मिनख

(कविता)

मंजुला बिष्ट


उधर
मेरे मैत* में आश्चर्य के सोते फूट पड़ते हैं
जब वे सुनते हैं कि
इधर
मेरे शहर में मावठ का घेरा पड़ा है
बादलों के गुच्छे पहाड़ियों पे सुस्ता रहे हैं
निर्घाम दिवस हैं..भरे दिन में बत्ती जलाई है
वे औचक पूछते हैं –
रेगिस्तान में भला.. इतना जाड़ा कैसे!
कहीं तो ओलावृष्टि भी हुई ..ये तो अंधेर हुई,हो!

मैं पूरे विश्वास से कहती हूँ
इधर सूखते कीकर पर पड़ती बूंदों की छितराहट
उधर के हरे सागवान पर अटकी बूंदों की लड़खड़ाहट में.. कोई विभेद नहीं है
बस..हम सूखते पत्तों को मृतप्रायः मान लेते हैं
और हरे को जीवित..जीवट तंतु
जबकि हरे और सूखे के बीच
एक रंग और होता है.. पीला
मैं इधर
पीले की शुभता-भव्यता में अंगुली डुबोकर
बेटू के बैशाख में सकुशल लौटने के लिए
इस भरे शीत में मौन अनुष्ठान करती हूँ

यदाकदा
उधर के मान्स..इधर के मिनख को
गर्म बालू के वाशिंदे समझ लेते हैं
और इधर के मिनख मुझे पहाड़ी कहते हैं
तो ध्यान आता है
कि मैं पहाड़ों से जितना दूर होती रही
उतना ही पहाड़ी कहलाये जाने की होंस* बढ़ती रही

हालाँकि मेरा हिमालय की तरफ जाना
तीन बार ही हुआ है
पहाड़ की स्मृतियाँ बहुत कम है मेरे पास
डाणें-काणें पर बैठकर घुघुती नहीं सुनी,
काफल नहीं खाये,माल्टा नहीं छोले कभी
लेकिन उनकी कृपण अनुभूतियां मेरे अन्तस् में
कई दिनों तलक पड़े पाले पर
जमे हिमपात सी कठोर है

आश्चर्य है..कि उसकी तासीर
गर्म बहते रक्त सी है..ठंडे पड़ते तलुवों सी नहीं
यह तासीर मेरे भीतर बहती उस शारदा नदी जैसी है
जिससे मिलने के बाद
मैंने नदी के नाम पर सिर्फ ओ सिर्फ़
उस से ही प्रेम किया है
अन्य नदियों के हृदय तलक पहुँचने का मेरा सौभाग्य नहीं रहा

इन दिनों मैं
पंजों के बल उचककर मैत को सुनती हूँ
अख़बार के मुताबिक..
शारदा का बहाव अब हिमालय से राजस्थान की ओर भी होगा
इस ख़बर का महत्तम हासिल कुछ यूँ है जैसे
जीवन मे पनीले उत्सव खोजती हुई
मैं एकाएक ही शारदा- तट से जा लगी हूँ

विगत तीन वर्षों में
मैंने मैत से इधर की अनेक स्वप्निल-यात्राएं की हैं
जहाँ मैत के पिछले खेत में गेंठे हुए कीले* दिखे
जिनके नुकीलेपन से बचने की कामनाएं
विदूषक का रूप धरे
किसी घाघ लुटेरे को दी हुई मेरी अर्पित दया है

बुबू कहते थे–
लंबी यात्राओं के बाद मिली नींद
निष्चेष्ट और निश्चल होती है
लेक़िन मुझे नींद में जगने का जैसे शाप मिला है
रात्रि से नींद छीनने की रस्साकशी में
विगत में दर्ज मेरा मौन देह को सुकूँ देता है
लेक़िन,आत्मा संतापों के कोलाहल पर कलपती है
खीज चुका दिमाग पैताने पर बैठ मलहम खोजता है

नींद का उनींदापन भी मुझसे उकताकर
पौ फ़टने की प्रतिक्षाओं में जगता रहता है
मैं सड़क पर भोंकतें कुत्तों के तलुवे की ठंडक
की सोचकर रजाई समेट लेती हूँ
कि अचानक ..मेरी बेचैन नाभि पर
माँ थपकी देती हुई अपनी नींद को
‘कुत्ते की नींद’कहकर फ़िर कोसने लगती है
लेक़िन कभी यह रहस्य नहीं खोलती –
दुनिया जिस क्षण पूरी की पूरी समझ में आने लगती है
उसी क्षण से नींद बैरन हो जाती है
और ये अकाट्य सत्य
उधर के मान्स और इधर के मिनख पर बराबर लागू है

नींद से बैर लेकर
माँ ने अपना आधा सिर अनिद्रा को सौंपा था
और आधा सिर सोने की शांत कोशिशों को
मुझे माँ जैसी
कुछ व्याधियाँ,व्यवहार और उचटी हुई नींद मिली है
पर मुझे ये सब बेटू को नहीं सौपनें हैं
क्या ही अच्छा होता..
कि मेरा लड़का दुनिया को पूरा नहीं समझ पाने का सदैव दोषी…अड़ायट* समझा जाता रहे
और मेरी यह कामना
उधर के मान्स और इधर के मिनख पर बराबर लागू हो।

मैत–मायका
मान्स–मनुष्य(कुमाउँनी भाषा)
मिनख-मनुष्य( राजस्थानी भाषा)
होंस–उत्कंठा/शौक
कीले-खूंटे
बुबू–दादाजी
अड़ायट–बेवकूफ़/कमअक्ल

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