आलेख
पर्यावरण विध्वंसक है वर्तमान पीढ़ी…..
नीरज कृष्ण
भारतवर्ष पुरातन काल से ही वनों को अत्याधिक महत्व दिया गया है। हम अगर अपने वेद-पुराण उठा ले तो उनमें भी वनों व वृक्षों को पुजनीय बताया गया है। हमारे धर्मों व कागज की जरूरत पूरा करने के लिए काटे जा रहा है और उन स्थान पर पूनः वृक्षारोपण कारने की बजय रिहायसी कॉलोनियाँ व नगर बसाये जा रहें हैं जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है।
सृष्टि के जीवों में मानव एक मात्र प्राणी है, जिसे यह योग्यता प्राप्त है जिसने अग्नि तथा अन्य यंत्रों का प्रयोग पर्यावरण को परिवर्तित करने के लिए सीखा। जांच और भूल विधि द्वारा मानव अपने पर्यावरणीय ज्ञान में वृद्धि करता रहा है। धीरे-धीरे पर्यावरण में संबंधित ज्ञान का भंडार इतना विस्तृत एवं वृहद् हो गया कि इसे विज्ञान का रूप दिया जा सकने की स्थिति आ गई और पर्यावरण अध्ययन के व्यवस्थित रूप “पर्यावरण विज्ञान” का जन्म हुआ।
विगत सौ वर्षों में मानव नें आर्थिक, भौतिक तथा सामाजिक जीवन की प्रत्येक दिशा में प्रगति के लंबे-लंबे कदम उठाए हैं। उसका इन क्षेत्रों में प्रगति का मात्र एक उद्देश्य था – इससे उसका स्वयं का हित हो। उसने इस प्रगति के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभावों की ओर तनिक भी ध्यान नहीं दिया। जीवों नें चारों ओर की वस्तुएं जो उनकी जीवन क्रियाओं को प्रभावित करती हैं, वातावरण का निर्माण करती हैं।
यथार्थ में जीव और पर्यावरण अन्योन्याश्रित हैं। एक की दूसरे से पृथक सत्ता की कल्पना करना असंभव है। सभी जीवों का अस्तित्व चारों ओर के पर्यावरण पर निर्भर करता है। पर्यावरण जीवों को आधार ही प्रदान नहीं करता, वरन् उनकी विभिन्न क्रियाओं के संचालन के लिए एक माध्यम का भी कार्य करता है।
दुनिया भर में 5 जून का दिन विश्व पर्यावरण दिवस के रूप में मनाया जाता है। इस वर्ष भी हर वर्ष की तरह पर्यावरण दिवस पर दो-चार पेड़ लगाकर हम अपने दायित्व को पूरा कर लेंगे। लेकिन प्रकृति को समझने की कोशिश नहीं करेंगे। प्रकृति का वह आवरण जिससे हम घिरे हुए है पर्यावरण कहलाता है। आज वही पर्यावरण प्रदुषण की चरम सीमा पर पहुंच चुका है। देखा जाए तो सृष्टि के निर्माण में प्रकृति की अहम भूमिका रही है। यहां हमने इतिहास के वो पन्ने पलटने की कोशिश की है जिनके बारे में सुनने, पढ़ने या फिर सोचने के बाद शायद हमें समझ आ जाए। हम आपका ध्यान उस दौर की और आकर्षित करना चाहते हैं जहां पर विशाल से विशाल जीवों ने प्रकृति के खिलाफ जाने की कोशिश की और अपना अस्तित्व ही खो दिया।
देखा जाए तो सृष्टि का निर्माण प्रकृति के साथ ही हुआ है। इस दुनिया में सबसे पहले वनस्पितयां आई। जो कि जीवन का प्राथमिक भोजन बना। उसके बाद अन्य जीवों ने अपनी जीवन प्रक्रिया शुरू की। माना जाता है कि मनुष्य की उत्पत्ति अन्य जानवरों के काफी समय बाद हुयी है। अगर कहा जाए तो मनुष्य की उत्पत्ति के बाद से ही इस सृष्टि में आये दिन कोई न कोई बदलाव होते आ रहें हैं। मनुष्य ने अपने बुद्धी व विवेक के बल पर खुद को इतना विकसित कर लिया की और कोई भी जीव उससे ज्यादा विवेकशील नहीं है।
दिन-प्रतिदिन मनुष्य अपनी बढ़ती जरूरतों को पूरा करने के लिए प्रकृति की कुछ अनमोल धरोहरों को भेंट चढ़ाता जा रहा है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि हमारा देश तरक्की कर रहा है। आज हम किसी भी देश से कम नहीं है। लेकिन क्या यह सही है कि हम अन्य विकसित देशों की विकास की दौड़ में तो दौड़ते जा रहें हैं परंतु अपनी धरोहर को नष्ट करते जा रहें हैं। जो देश आज प्रदुषण को कम करने में लगा है। एक ओर हम है कि अपने देश में हरे-भरे जंगलों को तहस-नहस करते जा रहें हैं।
भारतवर्ष पुरातन काल से ही वनों को अत्याधिक महत्व दिया गया है। हम अगर अपने वेद-पुराण उठा ले तो उनमें भी वनों व वृक्षों को पुजनीय बताया गया है। हमारे धर्मों व कागज की जरूरत पूरा करने के लिए काटे जा रहा है और उन स्थान पर पुनः वृक्षारोपण कारने की बजय रिहायसी कॉलोनियाँ व नगर बसाये जा रहें हैं जिससे प्रकृति का संतुलन बिगड़ता जा रहा है। एक दिन ऐसा आने वाला है जब हम अपनी आने वाली पीढ़ी को वन, उपवन की बातें अपने धार्मिक ग्रंथ रामायण व महाभारत में पढ़कर सुनाएंगे। वन होते क्या है, यह आने वाली पीढ़ी नहीं समझ पाएगी?
अब अगर बात की जाए प्रदूषण की तो वृक्षों का कटना प्रकृतिक संतुलन को बिगाड़ रहा है जिसके कारण वायु प्रदुषण बढ़ता जा रहा है। हर कोई किसी न किसी प्रकार से पर्यावरण को प्रदुषित करने का काम कर रहा है। जहां कल-कारखानें लोगों को रोजगार दे रहें हैं। वहीं जल-वायु प्रदुषण में अहम भूमिका भी निभा रहें हैं। कारखानों से निकलने वाला धूंआ हवा में कार्बन डाई आक्साइड की मात्र को बढ़ा देता है जो कि एक प्राण घातक गैस है। इस गैस की वातावरण में अधिक मात्रा होने के कारण सांस लेने में घुटन महसूस होने लगती है। वायु में बढ़ती कार्बन डाई आक्साइड की मात्रा को पेड़ ही कम कर पाते हैं। पेड़ कार्बन डाई आक्साइड को ग्रहण कर शुद्ध आक्साीजन छोड़ते हैं जिससे प्रकृति में गैसों का संतुलन बना रहता है। लेकिन अब कार्बन उत्साहित करने वाले स्त्रोत बढ़ते जा रहें हैं। जबकि आक्सीजन बनाने वाले पेड़ों की संख्या दिन-प्रतिदिन कम होती जा रही है।
जल ही जीवन है लेकिन उस जीवन में भी प्रदुषण नाम का जहर घुलता जा रहा है। पानी इंसान की अमूलभूत आवश्यकताओं में से एक है। बिना जल के जीवन की कल्पना करना भी बेकार है। आज के दौर में जल भी प्रदुषण की चरम सीमा पर है। जलवायु के नाम से पर्यावरण को जाना जाता है। लेकिन अब न तो जल प्रदुषण मुक्त है न ही वायु। देश की गंगा, यमुना, गंगोत्री व वेतबा जैसी बड़ी-बड़ी नदियां प्रदुषित हो चुकी है। सभ्यता की शुरूआत नदियों के किनारे हुई थी। लेकिन आज की विकसित होती दुनिया ने उस सभ्यता को दर किनार कर उन जन्मदयत्री नदियों को भी नहीं बक्शा।
भारत देश हमेशा से ही धर्म और आस्था का देश माना जाता रहा है। पुराणों में यहां की नदियों का विशेष महत्व वर्णन किया गया है। हिन्दु धर्म आस्था की मुख्य धरोहर गंगा आज आपनी बदनसीबी के चार-चार आंसू रो रही है। धर्म ग्रंथों के अनुसार राजा भागीरथ ने गंगा को स्वर्ग लोक से मृत्युलोक (पृथ्वी) पर बुलाने के लिए तपस्या की। तपस्या से खुश होकर गंगा पृथ्वी पर अवतरित हुई जिसने भागीरथ के बताए रास्ते पर चलकर उनके पूर्वजों को तार दिया। तभी से गंगा में स्नान कर लोग अपने पापों से मुक्ति पाने आते हैं। धर्म आस्था के चलते गंगा के किनारे कुंभ मेलों का आयोजन किया जाता है। देश भर में चार स्थान हरिद्वार, नासिक, प्रयाग व उन्नाव में कुम्भ के मेले का आयोजन होता है जिसमें देश के कोने-कोने से लाखों की तादात में श्रद्धालू अपने पापों से मुक्ति पाने व अपने बंश को तारने के लिए आते हैं।
जिस गंगा ने भागीरथ के वंश को तारा, आज वो दुनिया भर के श्रद्धालुओं के पापों तार रही है। लेकिन उस भगीरथ ने कभी नहीं सोचा होगा जो गंगा उनकी तपस्या से पृथ्वी लोक पर मानव उद्धार के लिए आयी थी एक दिन वो खुद अपने उद्धार के लिए किसी भागीरथ की वाट हेरेंगी। आज गंगा नदी इतनी प्रदुषित हो गयी है कि खुद अपने आप को तारने के लिए किसी भागीरथ का इंतजार करेंगी। जो आए और उसकी व्यथा को समझे।
हम यह क्यों भूल जाते है कि प्रकृति जीवन का आधार है जिसे हम लगातार दुषित करते जा रहे है। इतिहास गवाह है कि प्रकृति के अनुकूल चलने वाला ही विकास करता है। जबकि विपरीत चलने वाले जीवन का तो नमोनिशान नहीं मिला। अब वक्त है कि हम इन बातों पर विचार करना होगा। आखिर कब तक आने वाले संुदर भविष्य के सपने बुनने के लिए अपने पर्यावरण के साथ खिलवाड़ करते रहेंगे। एक दिन तो अति का भी अंत हो जाता है। तो हम क्या है? अभी ज्यादा वक्त नहीं गुजरा आज भी समय है चेतने का इस अपने पर्यावरण को शुद्ध रखने और प्रकृति को बचाने का। इसका एक ही उपाय है वो है प्रकृति को बचाना है प्रदुषण को कम करना है तो हमें ज्यादा से ज्यादा वृक्ष लगाने होंगे। वृक्ष हमें लगाने होंगे लेकिन सरकारों की तरह कागजों पर नहीं बल्कि हमें आज से तय करना होगा कि आने वाली पीढ़ी को अगर हँसता-खेलता देखना है तो प्रत्येक को कम से कम एक वृक्ष लगाना होगा।
प्राचीन काल में मानव पर्यावरण का अभिन्न अंग था। उसकी समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति पर्यावरण के द्वारा ही की जाती थी, और वह पर्यावरण को किसी भी तरह की हानि नहीं पहुंचाता था। किन्तु मानव विकास की प्रक्रिया में मानव की जीवन शैली परिवर्तित होने लगी। मानव एक प्रौधोगिकी मानव के रूप में परिवर्तित हो गया। उसने भोग-विलास की संस्कृति को अपना लिया तथा अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन करने लगा, जिसके परिणामस्वरूप पृथ्वी का जैविक और प्राकृतिक वातावरण अत्यंत दूषित और अपघटित हो गया है। मानव जाति के लिए यह अत्यंत चिंता का विषय है।
यदि हम पर्यावरणीय चिंतन को केन्द्र में रखकर मानव सभ्यता के प्रारंभ से आज तक की मानव यात्रा पर विचार करें तो ऐसा प्रतीत होता है कि वर्तमान मानव पीढ़ी मानव जाति के इतिहास में सर्वाधिक स्वार्थी पीढ़ी है। वर्तमान मानव पीढ़ी ने विकास और उन्नति के नाम पर अपने स्वार्थ और भोग-विलास के लिए प्राकृतिक पर्यावरण को सर्वाधिक हानि पहुंचाई है। वर्तमान मानव पीढ़ी द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का अत्यंत बेतरतीब एवं अंधाधुंध दोहन किया है, जिसके कारण संपूर्ण विश्व में पर्यावरणीय संकट उत्पन्न हो गया है।
मानव सभ्यता के विकास की कहानी वास्तव में प्रकृति अथवा पर्यावरण के अंधाधुंध दुरूपयोग की डरावनी कहानी कही जा सकती है। बीती शताब्दी में सभ्यता के विकास के साथ-साथ शहरीकरण, और औद्योगीकरण का तेजी के साथ विस्तार हुआ। विस्तार की उस गति में मनुष्य ने प्राकृतिक संसाधनों का अविवेकपूर्ण दोहन किया। जब इसका परिणाम पर्यावरणीय असंतुलन के रूप में हमारे सामने आया, तब हमारी नींद टूटी और ऐसा महसूस होने लगा कि हमने पर्यावरण के साथ काफी लापरवाहीपूर्ण बर्ताव किया है। अंधाधुंध विकास और टिकाऊ विकास के बीच का अंतर पर्यावरण को मजबूती दे सकता है। टिकाऊ विकास कोई कठिन काम नहीं, बशर्ते इसके लिए हम स्वयं को प्रकृति को हिस्सा माने और पारिस्थितिकीय दृष्टिकोण को विकसित करें।
हमारे विकास की भौतिकवादी और पूंजीवादी विचारधारा ने पर्यावरण को सबसे अधिक नुकसान पहुंचाया है। हर शहर, हर गांव और हर महानगर में दिन प्रतिदिन गगनचुंबी भवनों का निर्माण हो रहा है, किंतु हमारे जंगलों को बचाने कोई प्रयास नहीं दिख रहे है। उल्टा निर्माण कार्यों के चलते खेती योग्य उर्वरक जमीन का दुरूपयोग भी किसी से छिपी नहीं है। अब बड़े शहरों में शुद्ध हवा की कल्पना भी बेमानी लगने लगी है।
मानव द्वारा स्वयं को इस सृष्टि का सबसे बुद्धिमान और विवेकशील प्राणी घोषित किया गया है। किन्तु पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में देखे तो मनुष्य इस सृष्टि का सबसे मूर्ख प्राणी प्रतीत होता है। जो प्रकृति मनुष्य को जीवन देती है, उसका भरण पोषण करती है, शुद्ध जल, शुद्ध वायु और भोजन प्रदान करती है, मनुष्य उसी प्रकृति को निरन्तर नष्ट और दूषित करता जा रहा है।
आज का मनुष्य जानता है कि वह निरन्तर पर्यावरण को हानि पहुंचा रहा है। वह जानता है कि इससे उसका जीवन भी संकट में है। वह जानता है कि उसके इस कृत्य से उसको आने वाली पीढ़ीयों का जीवन अत्यंत कठिन होने वाला है। फिर भी वह अपने प्रकृति विरोधी कृत्यों पर नियंत्रण नहीं कर रहा है। इससे भी अधिक आश्चर्य की बात यह है कि प्रति में मानव द्वारा पर्यावरण असंतुलन को मिथ्या प्रदर्शन किया जा रहा है।
पर्यावरणीय चिंतन के नाम पर मिथ्याचारिता फैलाई जा रही है। पर्यावरण संरक्षण के लिए प्रतिवर्ष वैश्विक स्तर पर बड़े-बड़े सम्मेलन आयोजित किये जा रहे है। मंथन किया जा रहा है। लगातार व्यापक नीतियाँ तैयार की जा रह है। पर्यावरण सरंक्षण के लिए अनेक विधान बनाए गये है। लेकिन हास्यास्पद यह है कि इन नीतियों और विधानों को बनाने वाले स्वयं उनको लागू करने और मानने को तैयार नहीं है। पर्यावरणीय चिंतन के संदभों में मनुष्य का यह दोहरा चरित्र निःसंदेह भविष्य में उस पर ही बहुत भारी पड़ने वाला है।
हमारे पूर्वज कहते थे “अति सर्वत्र वर्जयते”। आज के प्रौधोगिक मानव ने अपने पूर्वजों की इस चेतावनी को भुला दिया है। उसने अपने भोग-विलास और सुख-सुविधा के साधन जुटाने के लिए अति से भी अधिक प्राकृतिक संसाधन का दोहन किया है, और प्राकृतिक पर्यावरण को अत्यधिक क्षति पहुंचाई है। जिसका प्रतिफल अनेकानेक प्राकृतिक संकटों के रूप में निरंतर सामने आ रहा है। और भविष्य में स्थिति और भी अधिक भयावह होने वाली है। हमने अगर पर्यावरणीय परिप्रेक्ष्य में गंभीरता पूर्वक चिंतन कर पूरी प्रतिबद्धता के साथ सार्थक समाधान नही निकाला तो हमारी आने वाली पीढ़ियाँ हमें अपने इस कृत्य के लिये कभी क्षमा नही करेगी, और इस पृथ्वी पर से मानव जाति के अस्तित्व को नष्ट होने से काई नही बचा सकेगा।
अब जब हमने भी आज और केवल आज के लिए पर्यावरण-प्रेमी का चोला पहन ही लिया है, महज सेल्फ़ी के लिए ही सही कुछ वृक्षों का वृक्षारोपण से फुरसत मिल गई हो तो हमें इन मुद्दों पर शिद्दत से विचार करना चाहिए कि:- क्या हम स्पेन से यह नहीं सीख सकते हैं कि किस तरह से उजड़े हुए जंगल को पुनः विकसित किया जाये, अपने खोये हुए पुराने पेड़ों को फिर से खोज कर लगाया जाये। क्या हम फ्रांस से उपयोग की गयी पुरानी इस्तेमाल में ना आने वाली चीज़ों को फेंकें नहीं वरन उनके पुनः रिसाईकिल कर पुनः प्रयोग का उपाय खोजें। क्या हम एक ऐसी प्रतियोगिता का आयोजन नहीं कर सकते जिसमें सबसे ज्यादा गन्दगी फैलाने वाले को पुरस्कृत किया जाए और पुरस्कार स्वरुप उसे उसी के द्वारा फैलाये गये कूड़ा-कबाड़ का मोमेंटो प्रदान किया जाए।
वृक्ष तो ज़रूर लगायें खासकर हर मौसम के फलदार पेड़, औरों के लिए नहीं तो कम से कम अपने लिए ही सही। वृद्धावस्था में अगर संतान हमारे नियत समय पर भोजन देने में विलंब करती है तो भूखा मरने से तो बच जायेंगें। कम से कम साल में आज के दिन तो पर्यावरण-प्रेमी का चोला पहनें। बुरी आदतें एकदम से नहीं छूटती इसलिए कोई जल्दबाजी नहीं। अरे कभी तो वो सुबह आएगी…….
नीरज कृष्ण, पटना (बिहार)