आलेख
न हो कमजोर रिश्तों की डोर!!
(विश्व परिवार दिवस)
“नीरज कृष्ण“
रिश्तों को समझना काफी आसान भी है और मुश्किल भी। मुश्किल इसलिए कि जब कोई समझना ही नहीं चाहता तो आप कुछ नहीं कर सकते …खासकर तब जब सामने वाला आप में सिर्फ बुराई ही ढूँढने की कोशिश कर रहा हो…. और समझना बिलकुल भी नहीं चाह रहा हो। वो रिश्ता ही क्या जिसमें एक्सप्लेनेशन देना पड़े और सामने वाला बुराई ही खोजने पर आमादा हो। मेरा तो यही मानना है कि अगर आप किसी व्यक्ति से प्यार करते हैं तो उसे वैसे ही स्वीकार करें, जैसा वो है वैसा है। इससे हमारी आधी से ज्यादा समस्याओं का निवारण हो जाएगा।
आज की भाग दौड़ की जिंदगी में अक्सर इस बात का एहसास ही नहीं हो पता कि जिन अपनों के लिए हम इतनी भागदौड कर रहे हैं, क्या वास्तव में उन्हें उसकी जरुरत है? क्या उन्हें वही चाहिए जो हम सोच रहे हैं? या इसके अतिरिक्त भी उन अपनों को कुछ चाहिए होता है, जो जाने-अनजाने हम नहीं दे पा रहे हैं और जो दे रहे हैं कल जब वो भी देने की स्थिति में नहीं रह जाते, तो उन्ही अपनों से टका सा जवाब मिलता है कि आपने मेरे लिए क्या किया? फिर हमें वो सारी भागदौड याद आने लगती है कि इन्ही अपनों के हमने क्या–क्या दुःख नहीं झेले? किस–किस से झगडा मोल लिया है? कौन–कौन सा कुकर्म नहीं किये हैं? कितनो को दुःख पहुँचाया है? लेकिन तब हमारे हाँथ कुछ भी नहीं लगता और संतोष के लिए हम नये जमाने पर सारा दोष मढ जाते हैं।
एक लोकोक्ति, जिसे हम सबों ने कई बार पढ़ा है- ‘बोलना तो सिख गए हम, पर क्या बोलना है आज तक नहीं सीखे’ ने भी रिश्तों के बिगड़ते समीकरण में प्रमुख भूमिका निभाई है। शब्दों के तीर तलवार से कहीं ज्यादा गहरे जख्म पहुंचाते हैं, जो सीधे दिल पर असर करता है। यह एक ऐसा जख्म होता है, जो दिखते तो नहीं हैं मगर लम्बे समय तक टीसते रहते हैं। शब्द बहुत शक्तिशाली होते हैं। इनके माध्यम से हम मित्र भी बनाते हैं और दुश्मन भी। कई बार पता भी नहीं चलता है कि किसी की बोली गयी बात सामने वाले को कितनी गहरी पीड़ा पहुंचा गयी है।
प्रायः लोग कडवे शब्द बोलने के बाद यह सफाई देते हैं, “अरे तुम तो बड़े भावुक निकले, मेरी बातों को इतने गंभीरता से ले ली”। या फिर “इतनी बड़ी क्या बात हो गई? टेक इट ईजी….यार।“ यानि आप शब्दों के तमाचे भी जड़ दें और दुसरे से सामान्य बने रहने की अपेक्षा भी करें। क्या यह संभव है। इस संदर्भ में डेल कार्नेगी ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है, “अगर आप और मैं कल किसी के मन में अपने लिए विद्वेष पैदा करना चाहते हों, जो दशकों तक पलता रहे और मौत के बाद भी बना रहे, तो हमें और कुछ नहीं करना, सिर्फ चुनिन्दा शब्दों में चुभती हुई आलोचना/कटाक्ष करनी है ……”
छोटे बच्चों या अतिसंवेदनशील व्यक्तिओं को बार-बार कटु वचनों से आहात किया जाए तो वह उसके पुरे व्यक्तित्व को बुरी तरह प्रभावित करता है। उसका आत्मविश्वास तक डगमगा जाता है, वह असामान्य व्यवहार करने लगता है, धीरे-धीरे वह लोगों से मिलने में कतराने लगता है और खुद को अकेला कर लेता है। कई बार तो परिस्थितियां अवसाद(डिप्रेशन) जैसे स्थिति तक पहुँच जाती हैं। अनजाने में या बिना सोचे समझे बोली गयी बातें सामने वाले को इतना चोट पहुंचा जाती है, जिनसे आपका बेहद आत्मीय लगाव होता है। इसका आभाष हमें बाद में होता है, फिर सिवा पछताने के हम-आप कुछ नहीं कर सकते। कोई भी व्यक्ति सिर्फ अच्छा या सिर्फ बुरा नहीं होता है। हमेसा सामने वाले में बुराइयाँ देखने की जगह उसमे निहित अच्छाई भी हमें देखनी चाहिए। यदि सामने वाले व्यक्ति में कोई बुराई है भी तो उसे बातों से समझाएं, संवाद करें। आप किसी को डरा कर, कटाक्ष या चुभती जुबान से बोल कर अपने मन के अनुरूप नही बना सकते हैं।
डेल कार्नेगी ने एक जगह लिखा है कि “हम यदि पहले अपनी तारीफ सुन लेते हैं तो बाद में बुरा सुनना आसान हो जाता है”। जैसे पुरुष अपनी दाढ़ी बनाने के पूर्व उस पर क्रीम लगाता है।
वर्तमान समय में ‘संवादहीनता’ ने रिश्तों की मजबूत कड़ी को कमजोर करने में सबसे अहम भूमिका निभाई है। मैंने अब तक की जिंदगी में यह देखा और अनुभव किया है कि वे ही घर/परिवार ज्यादा फले-फुले हैं जिस घर में हर रिश्ते को सम्मान मिली है और संवादहीनता की स्थिति नही है। रिश्तों में द्वंद नहीं रखें…..संवाद करें क्योंकि हर समस्या का समाधान संवाद में ही छुपा होता है। यदि बच्चे संवाद नही कर रहे हैं तो यह हमारा कर्तव्य है कि हम खुद से पहल करें….संवाद करें बच्चों से। खलील जिब्रान ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है “तुम उन्हें(बच्चों को) अपनी मुहब्बत दे सकते हो, लेकिन अपनी सोच नही दे सकते क्योंकि उनके पास अपनी सोच है।
दरअसल, महानगरों में बच्चों के पालन-पोषण के जो तरीके अपनाए जा रहे हैं, उनमें हैसियत का तत्त्व सबसे ऊपर होता है। लेकिन उसमें जो आभिजात्य फार्मूले अंगीकार किए जाते हैं, किसी बच्चे के एकांगी और अकेले होने की बुनियाद वहीं पड़ जाती है। आज यह वक्त और समाज की एक बड़ी और अनिवार्य जरूरत मान ली गई है कि एक आदमी एक ही बच्चा रखे। एकल परिवार के दंपत्ति इस बात को लेकर बेपरवाह रहते हैं कि वे अपने छोटे परिवार के दायरे से निकल कर बच्चों को अपना समाज बनाने की सीख दें। काम के बोझ से दबे-कुचले माता-पिता डेढ़ साल के बच्चे को ‘कार्टून नेटवर्क’ की रूपहली दुनिया के बाशिंदे बना देते हैं। बच्चे के पीछे ऊर्जा खर्च नहीं करनी पड़े, इसलिए उसके भीतर कोई सामूहिक आकर्षण पैदा करने के बजाय उसकी ऊर्जा को टीवी सेट में झोंक देते हैं। फिर दो-तीन साल बाद उसके स्कूल के परामर्शदाता से सलाह लेने जाते हैं कि बच्चा तो टीवी सेट के सामने से हटता ही नहीं और पता नहीं कैसी बहकी-बहकी कहानियां गढ़ता है।
दोहरी मानसिकता के साथ जीते हुये हम सुख की तलाश में जिंदगी भर भटकते रहते हैं, लेकिन वह सुख हमें कभी हासिल नहीं हो पाता। आज का जीवन इतना एकाकी हो चूका है कि रिश्ते भी स्वार्थी हैं। संबंधों में इतनी दुरी आ गयी है कि उसे पाटना अब आसन नहीं है। रिश्तों की ये खटास किसी खाश रिश्ते तक सीमित नहीं है। पति-पत्नी के बीच बढती दूरी रिश्तों को स्वार्थ के चरम तक पहुंचा दिया है।
यह भी एक विडम्बना है कि जहाँ सारे विश्व के लोगों के बीच की दूरियों को आज के टेक्नोलॉजी ने घटा दिया है, वहीँ पारिवारिक सामजिक रिश्तों की दूरी बढती जा रही है, वहीँ पारिवारिक सामाजिक रिश्तों की दूरी बढती ही जा रही है और हम जानकर भी अनजान बने हुये हैं। हमें इसका एहसास तभी हो पता है जब भुक्तभोगी होते हैं, लेकिन तब तक काफी देर हो चुकी होती है और हमारे हाँथ कुछ नहीं रह जाता।
“जिस तरह हमारे जन्म के साथ ही हमारी मृत्यु का दिन भी निश्चित होता है उसी तरह हर नये रिश्ते के जन्म के साथ ही उस रिश्ते की मियाद भी तय होती है। हर नया रिश्ता अपनी उम्र साथ लिखा कर लाता है। रिश्ते हमारे जीवन में सुख और खुशी लाते हैं। हर रिश्ता कुछ ना कुछ सिखाता है और बहुत हद्द तक हमारे जीवन को प्रभावित भी करता है, लेकिन हम किसी मृतप्राय रिश्ते को कुछ दिन वैंटिलेटर पर रख कर कुछ और सांस तो दे सकते हैं लेकिन ज़िंदा नहीं रख सकते हैं… ऐसे मरे हुए, बेकार, निर्जीव और बोझिल रिश्तोँ के बोझ को उतार फेंकने में ही हमारी समझदारी है, मैं यहाँ पर हर किस्म के रिश्तोँ की बात कर रहा हूँ। राजेश खन्ना फिल्म ‘आनंद’ में एक बार कहते हैं कि आपकी ज़िंदगी में भी ऐसे लोग आए होंगे जिन्हें आप नहीं जानते, जिनसे आप नहीं मिले, लेकिन जब उनसे मिलते हैं तो लगता है कि इनसे कोई पुराना नाता है। और कई बार ऐसे लोग मिलते हैं, जिन्होंने आपका कभी कुछ बिगाड़ा नहीं होता पर लगता है कि जनम-जनम के दुश्मन हैं। किसी से मिल कर यह लगना कि वह आपका प्रेम है, यही है रिश्ता। याद रखिये यदि आज हम खुद खुश और आनंदित नहीं हैं तो हम किसी और को भी क्या सुख और आनंद दे पायेंगे। इंसानी फितरत है कि जो हम पाते हैं वही बांटते हैं। इसलिये खुशी बांटिये, आनंद साझा करिये और जितना हो सके रिश्तोँ को संभालिये लेकिन आत्म-सम्मान की कीमत पर नहीं। बोझ हमेशा बोझ ही रहेगा। और रूई भी जब भीग जाती है तो भारी हो जाती है, ये तो फिर भी रिश्ते हैं…इन्हेँ प्यार और विश्वास की धूप में हमेशा सुखाये रखिये… हल्के-हल्के रिश्ते तितली की तरह उड़ने लगेंगे, लेकिन अगर तमाम कोशिश के बाद भी वो नहीं चल पा रहे हैं तो उन्हेँ छोड़ दिजिये… किसी भी बंधन में बंध कर कोई भी पनप नहीं पाया है।
मगर फिर भी मेरा यह मानना है कि रिश्ता लंबा और ता-ज़िन्दगी तभी कायम रहता है जब दो लोग उसे कायम रखना चाहें। रिश्तों की मियाद तब ही लंबी हो सकती है जब अपेक्षाएं न्यूनतम और वाजिब हों। अन्यथा रिश्तों में दरार आने में देर नहीं लगती फिर वह रिश्ता कितना ही मधुर और घनिष्ठ क्यों न हो। एक समय था जब लोग रिश्तों पर जान छिड़कते थे, वैसे लोग आज भी हैं। लेकिन अब रिश्तों की परिभाषा बदलने लगी है। आज रिश्ते हमारे पद और पैसे, सफलता/असफलता की तराजू पर तुलते हैं। हमें यह सदैव ध्यान रखना चाहिए कि हर ‘रिश्तों’ का अपना मनोविज्ञान होता है, इतिहास-भूगोल भी।
जिस बच्चे को अपने साथी के रूप में ‘टॉम-जेरी’ और ‘डोरेमॉन’ मिला हो, वह क्यों नहीं आगे जाकर अपने मां-बाप से भी कट जाएगा? स्कूल जाने से पहले मां-बाप छोटे बच्चों को सलाह देते हैं कि अपनी पेंसिल किसी को नहीं देना, अपनी बोतल से किसी को पानी नहीं पीने देना। हम नवउदारवादी मां-बाप बच्चे को पूरे समाज से काटते हुए बड़ा बनाते हैं, क्या हमें इस बात का भान भी है। उसके पास अपना कहने के लिए सिवा अपने मां-बाप के अलावा और कोई नहीं होता। और जब वही मां-बाप साथ छोड़ देते हैं तो वह अपने को निहायत बेसहारा महसूस करने लगता है। अपने घर की चारदीवारी को ही अपनी जीवन की सीमा का अंत मान लेता है। महानगरों में ऐसे अकेले लोगों की पूरी फौज खड़ी हो रही है जो रहते तो ‘सोसायटी’ में हैं, लेकिन अरस्तू की परिभाषा के मुताबिक ‘सामाजिक प्राणी’ नहीं हैं। यानी मनुष्य होने की पहली शर्त खो बैठे हैं।
नीरज कृष्ण
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार)