कविता
पहाड़ भी रोते हैं।
कविता
राहुल गोस्वामी(अचेतन)
पहाड़ भी रोते हैं
जब मेघ लहराता है
विकराल रूप दिखलाता है
तब अस्तित्व पहाड़ भी खोते हैं
हाँ पहाड़ भी रोते हैं
विकास,तरक्की और अनेकों नाम
सड़क,रेल,हवाई जहाज का
लुत्फ उठाना है
मगर रास्ता पहाड़ चीरकर बनाना है
ऐसे में घायल पहाड़ भी होते हैं
हाँ पहाड़ भी रोते हैं
छुट्टियां बीती पहाड़ों में
देव दर्शन पहाड़ों में
मीलों के जाम पहाड़ों में लगाते हो
खलल प्रकृति की यात्रा में बढ़ाते हो
शांति पहाड़ भी खोते हैं
हाँ पहाड़ भी रोते हैं
वो पहाड़ की ऊँची चोटी
जहाँ विजय पताका लहराती है
वो रक्तरंजित पथरीली भूमि
जो वीरों की कथा सुनाती है
अक्सर पहाड़ युद्धभूमि होते हैं
हाँ पहाड़ भी रोते हैं
शांत हैं स्थिर हैं फिर ठेस पहुंचाना क्यों
प्रकृति की अमूल्य धरोहर को तड़पाना क्यों
जाइये घूमिये वात्सल्यी गोद में पहाड़ों की
लेकिन अस्मिता पर करते हो प्रहार क्यों पहाड़ों की
मानवीय दम्भ के कारण पहाड़ टूट रहे होते हैं
जुड़ा था जिनसे सदियों से साथ उनके छूट रहे होते हैं
आख़िर साथ पहाड़ भी अपनों का खोते हैं
हाँ पहाड़ भी रोते हैं।।
राहुल गोस्वामी (अचेतन)