आलेख
आजादी का अमृत महोत्सव-कितना समीचीन?
“नीरज कृष्ण“
भारत 26 जनवरी 2022 के दिन गणतंत्र की 73वीं वर्षगांठ मना रहा है। सन् 1950 में आज ही के दिन आजादी के लगभग ढाई वर्ष बाद हमने अपना तंत्र अर्थात संविधान लागू करते हुए स्वतंत्रता प्राप्ति को सार्थक किया था। हमने प्रजातंत्र के रूप में ऐसा शासन व्यवस्था को अंगीकर किया, जिसे सर्वश्रेष्ठ माना जाता है। इस व्यवस्था में गण अथवा लोक ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है तंत्र अर्थात सरकार को गण अर्थात जनता द्वारा चुना जाता है। प्रजातंत्र में सरकार जनता के द्वारा जनता के लिए जनता की मानी जाती है, लेकिन यह अफसोस की बात है कि यथार्थ इससे भिन्न हैं। आमजन द्वारा चुनी हुई सरकारें ( केन्द्र या राज्य) जनता की पहुंच से बहुत दूर हो जाती है। सरकारों पर राजनेताओं, कार्पोरेट घरानों व नौकरशाहों का ही आधिपत्य रहता है।
गण और तंत्र की इस दूरी ने ही आज देश के राजनैतिक क्षेत्र में शुन्यता, आर्थिक क्षेत्र में अराजकता व सामाजिक क्षेत्र में अलगाव व विखण्डन उत्पन्न कर दिया है। सर्वाधिक चिंता का विषय राजनेताओं का पराभव है। राष्ट्रपटल पर आज कोई ऐसा नेता दिखाई नहीं पड़ता जो लोगों की आस्था ब विश्वास का केन्द्र बन सके। सभी नेता अपनी दलगत सोच के संकीर्ण दायरे में केद है। समाज में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है। एक ओर एक विशेष विचारधारा को नहीं मानने वालों को देशद्रोही ठहराया जा रहा है तो दूसरी ओर अनवरत शत्रुता पूर्ण रवैया रखने वाले पड़ोसी मुल्क के प्रति विशेष अनुराग दिखाया जाता रहा है।
देश में विश्वास का संकट है। न सत्तापक्ष पर भरोसा है न विरोधी पक्ष पर यकीन। नेताओं की संख्या रसातल में चली गई है। कैसी बिडंबना है कि देशभक्त व सेकुलरवादी जैसे पावन शब्दों को आज तानों के रूप में इस्तेमाल किया जाने लगा है। अर्थव्यवस्था पटरी से उतरती प्रतीत होती है। जीडीपी की गिरावट बेरोजगारी व महंगाई में इजाफा बेलगाम भ्रष्टाचार, महिलाओं के साथ बढ़ते दुष्कर्म आदि उत्तरदायी सरकारों की नींद उड़ाने के लिए पर्याप्त हैं, लेकिन सत्तापक्ष और विपक्ष सीएए व एनआरसी पर अर्थहीन व अंतहीन बहस में मशगूल रहा। न सत्ता पक्ष जनता को भरोसा दिला पाया है कि किसी की नागरिकता छीनी नहीं जाएगी न विरोधी पक्ष इन्हें असंवैधानिक सिद्ध कर पाया है। जनता अवश्य असली मुद्दों से भटक रही है।
फरवरी 21 के प्रारम्भिक दिनों में विश्व के तमाम देशों के साथ-साथ भारत भी कोरोना जैसे वैश्विक महामारी के जद में आ गया। देश की अर्थव्यवस्था रसातल में चली गयी। उद्योग-धंधों से लेक तमाम तरह के व्यापारिक संस्थाएं ठप्प हो गई, रोजगार छिन जाने और दो जून भोजन के लाले ने सड़कों पर प्रवासियों की भीड़ को पैदल ही अपने मूल निवास स्थानों की तरफ कूच करने को लाचार कर दिया। हालांकि अब देश वापस पटरी पर लौट तो रही है पर स्थिति संतोष व उत्साहप्रद नहीं लग रही है।
समाज दो धड़ों में बंट गया है- धार्मिक आधार पर भी और आर्थिक आधार पर भी। जब तक सबका साथ नहीं होगा, तब तक सबका विकास नहीं होगा और जब तक सबका विकास नहीं होगा तब तक सबका विश्वास कैसे जगेगा? ऐसे में सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास महज़ नारा ही बनकर रहा जाएगा।
गणतंत्र की स्थापना का मूल उद्देश्य था देश में जनता के द्वारा चुने हुए प्रतिनिधियों के द्वारा देश की जनता को लाभ मिले। यह अवधारणा कोई गलत नहीं रहा जिस समय संविधान बनाया जा रहा था और बनाया गया उस समय देश, समाज, व्यक्ति, की आवश्यकता पूरी होती दिखाई दी पर जो जो समय बीतता गया उसमे परिवर्धन और परिवर्तन की गुंजाईश होती गयी। तत्समय के मनीषियों गहन चिंतन मनन कर बनाया था और बहुत सीमा तक समीचीन हैं।
आवश्यकता ही अविष्कार की जननी हैं और विज्ञान वरदान भी होता हैं और अभिशाप भी। जो जिस ध्येय से उपयोग करे। गणतंत्र ने अपनी 72 वर्ष की सफल यात्रा कर 73वें वर्ष में प्रविष्ट हो रही हैं उसने बहुत उतार चढ़ाव देखे। विगत कई वर्षों से संविधान की मर्यादाओं छिन्न-भिन्न करने का प्रयास किया और हुआ।
पहले संविधान के चार पायदान थे ये हैं विधायिका,कार्य पालिका, न्यायपालिका और पत्रिकारिता को भी माना गया पर यथार्थ में वह धूमिल दिखाई देता हैं। प्रारम्भ में इनकी शगल बहुत अच्छी थी और लगाने लगा था देश सही दिशा में जा रहा हैं,पर राजनीती में अपनी अपनी विचार धारा को घुसेड़ने का प्रयास किया गया उससे गणत्रंत बेमानी हो गया।
जो सत्ता के कर्णधार हैं उस हिसाब से, विधायिका में जो गिरावट आयी जिसके प्रमाण संसद और विधान सभा में देखने मिलते हैं,चु ने हुए प्रतिनिधि आकंठ से भ्रष्टाचार और अनैतिक कार्यों से जुड़ने के कारण संविधान की शपथ लेना बेमानी हैं और न उन्हें पदासीन रहने का हक हैं।
कार्यपालिका के पदस्थ अधिकारीयों ने भी भ्रष्ट लोगों का संरक्षण लेकर उनके द्वारा अधिकतम मनमानापन किया गया। चुने हुए नेताओं की अज्ञानता और अनुभवहीनता का दोहन भरपूर किया। कहीं कहीं अधिकारी नेताओं से आगे निकल गए और सही मायने में दोनों एक दूसरे के पूरक हैं और आश्रित हैं जैसे देह और आत्मा। विलम्ब से न्याय भी अन्याय लगने लगता हैं और न्यायकर्ताओं की निष्ठों कभी कभी संदिन्ध लगती हैं। जो अप्रभावित होना चाहिए थी वह अत्यंत प्रभावित हैं चाहे सरकार,चाहे धन और चाहे जिसकी लाठी उसका जोर। इसमें वकीलों का ज्ञान भी न्यायाधीशों के समक्ष नतमस्तक हो जाता हैं। एक कानून /नियम की अलग अलग परिभाषा बनायीं जाती हैं। जो काम कार्यपलिका से नहीं होता उसको न्यायपालिका द्वारा कराया जाना इसी बात का प्रतीक हैं और न्यायाधीशों की नियुक्तियां बिना शासक की इच्छा के नहीं होती, जिससे न्याय पर सरकार प्रभाव दिखाई देता और मिलता हैं।
जनता की आवाज कठिनाइयाँ,परेशानियों का दायित्व समाचार पत्रों पर होता हैं और स्वंत्रता आंदोलन में इनकी महती भूमिका और योगदान रहा पर समय के साथ इससे होने वाले लाभों से ये भी वंचित नहीं रहे और इनमे इत्तनी ताकत होती थी कि जनांदोलन तैयार करते थे और सत्ता परिवर्तन में भी अहम भूमिका रही पर विगत कुछ वर्षों से पत्रकारिता शासक की विचार धारा और मान्यताओं के अनुरूप होने से आज पत्रकार अब बिना कार का नहीं रहा । कार के लिए चाटुकार होना जरुरी उसका प्रतिफल आज समाचार पत्र प्रभावहीन हैं। अब जो सत्ता के केंद्र से जुड़े हैं उनको लाभ मिलता हैं और जो परिधि में हैं वे चक्कर काट रहे हैं।
वर्तमान में संविधान के चारों पाये चौपाये हो गए हैं,पालतू हो गए हैं और बहुमत के जोर पर या प्रभावशाली होने पर अपने अपने क्षेत्रों में मनमानी कर रहे हैं जिससे वर्तमान में संविधान नहीं दिखाई दे रहा हैं और गणतंत्र गौण हो गया।
ऐसे धूमिल व अनिश्चित वातावरण में केवल भारतीय जनमानस ही आशा का संचार करता प्रतीत होता है। भारतीय मानस में लोकतंत्र की जड़ें बहुत गहरी हैं। हम किसी प्रकार की अधिनायकवादी व तानाशाही प्रवृत्ति को बर्दाश्त करने वाले नहीं हैं। अतीत में आपातकाल के बाद के घटनाक्रम ने इस पर मुहर लगाई है।
विविधता में एकता हमारा मूलमंत्र रहा है। हम कुछ देर के लिए भटक तो सकते हैं, लेकिन लोप नहीं हो सकते। बस इसी आशा और विश्वास परअपना लोकतंत्र गतिमान रहा है, गतिमान रहेगा। यदि राजनेता इसे समझने से इंकार करेंगे तो जनता उन्हें अच्छे से समझा देगी। गण जब तंत्र को पहले मजबूर और फिर मजबूत करेंगे तो हमारा गणतंत्र भी मजबूत होगा। गणतंत्र की 73वीं वर्षगांठ पर हम सभी भारतवासी इसकी मंगल कामना करें।
नीरज कृष्ण
एडवोकेट पटना हाई कोर्ट
पटना (बिहार)