कविता
रोते हैं आज भी!
हरदेव नेगी
रोते हैं आज भी,
वो हजारों चेहरे जो हो गये थे काल के शिकार,
जब दो वक्त की रोटी के लिए गये थे वो केदार।।
कुछ बुग्यालों में हर लिए गये,
कुछ जीने की आस में प्रांण छोड़ गये।।
खिल उठते हैं उन मृत आत्माओं के चेहरे,
जब खुलते हैं केदार के द्वार, देखते हैं वो जब अपनों को,
उनकी खुशियों का ठिकाना नहीं रहता, जब केदार से अपने घर लौटने लगते हैं तो वो भी उनके साथ आधे रास्तें तक आते हैं,
और एक धार में बैठकर देखते रहते हैं उनको, जैंसे सौर्यास जाती हुई धियांण को देखते हैं घर वाले, वो भी रोते हैं,
आँसू उनके भी बहते हैं, मगर वो अदृश्य हैं बोल नहीं पाते,
काश कि आत्माएं भी बोल पाती. अपनों को देखते ही लिपट जाती। एक बथौं की तरह वापस बुग्याळों को लौट जाते हैं अपने घर,
ह्यूंद के दिनों में उन आत्माओं को भी लगती हैं अपनों की खुद,
उनकी खुद का पता तब लगता है जब केदारघाटी के गांवों में लगते हैं आंछरी के मडांण, आंछरी भी परिवार की कोई धियांण होती है, वो बेटी व धियांण जो हो गई थी कभी काल का शिकार, बीठों व डाळ्यों पर घास काटते वक्त, या फिर अप्राकृतिक मृत्यु से, लेती है वो आंछरी का रूप, जिसे परिवार के लोग घर में स्थापित करते हैं देवी के रूप में,
जब जागरी लगाता है आंछरी के गीत,
तब आंछरी अवतरित होती है,
लगते हैं जब “मैत्यूं का मंडल” धियांण को मैत बेदने (मायके बुलाना) वाले गीत,
आंसुओं की पंणधार बहने लगती है कौथिगेरों की आँखों में.
इस बीच अवतरित हो उठती है उन मृत भाइयों की आत्मा जो आज केदारनाथ के बुग्यालों में रहती है, वो भटका हुआ सरील भेंटता है अपनी धियांण को, याद आती है उसे भी, कि कभी वो भी अपनी धियांण को बुलाने उसके सौर्यास गया था, खूब भैंटते हैं दोनों एक दूसरे को, भैंटते हैं अपने ज्यूंदा ब्वे बाब, चाची बौडी, भैजी भुला फूफू, बोडा दादी दादा दगड़्यों को.
लगते हैं जब “फूल ब्यूंणला” “नौ सुर्या मुरल्या” “म्येरि बेडूळा”
जैंसे खुदेड़ आंछरी गीत, आंछरियों को पसंद होते हैं बारह रंग के फूल. अपनी धियांण के सहारे आज आये हैं वो उस चौक में, उन भैज्यों की सरील भी मैलुख कर देता है और कुछ रंग बिरंगे फूल धियांण की कुंणजी में रख देता है, कभी द्वी भै-बैंणा बाळपन में फ्योंली बुरांस के लिए गये थे गाँव के पुंगड़ों व बौंण में. खितनी खुश होती है वो आंछरी धियांण जब भैजी देता है “लाल रंग की साड़ी, कोटी, चुन्नी व सिंगार का सामान, गौं वाले देते चूड़े बुखड़ें, पैंणू जैंसे एक धियांण को सौर्यास पैटते वक्त दिया जाता है, कैंसा सौभाग्य है उस धियांण का जो आंछरी की रूप में उसी घर में आज स्थापित है, जिसके नाम का चांदी का जंतर कुल देवताओं के बीच रखा है, और कैंसा अभाग है उन भाइयों का जो फिर लौट गये उन बुग्यालों में, आयेंगे वो फिर अपनी बैंण – आंछरी धियांण से मिलने जब उनके अपने लगायेंगे दो तीन साल बाद दुंण बाजू (दूसरा बाजा).
रोते हैं आज भी जिनको अभी तक घरों में देवस्थान ना मिला.
मगर वो अपना एहसास जरूर करवाते हैं।। वो भटके हैं रौल्यूं पाख्यों में, बुग्यालों में, धारों में, ऊंचा सागरों में। सुनेंगे वो पल्यसों के गीत, करेंगे उनसे बातें. वो केदार के पळसी, वो मनणा बुग्याल के पलळसी. उनकी बांसुरी की भौंण के सहारे बिसरायेंगे अपनी खुद।।।
लेख :- हरदेव नेगी
गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग, उत्तराखंड)