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मैंने जितना समझा

कविता

मैंने जितना समझा

संजीत’समवेत

कविता

मैंने जितना समझा,
सोचा और जाना
तो बस इतना ही पाया
की बेहतरीन होती हैं
औरत, महिला और माँ,
ये नही रखती ज्यादा उम्मीदें
बस अगर
कोई इन्हें सुनने वाला हो,
समझने वाला हो।
बताने वाला हो
और जताने वाला हो,
की सच में ये बहुत बेहतरीन हैं।
ये जिस्म नही रूह चाहती हैं,
ये चाहती हैं
कोई इन्हें भी सुने,
इन्हें भी समझें।
हर बार इन्ही को
निराश होकर
समझौता न करना पड़े।
कभी बेटा माँ को अनदेखा कर जाता है
कभी पति पत्नी को
तो कभी पिता अपनी बच्ची को,
बस वो अनदेखापन,
उन्हें अच्छा नही लगता।
वो चाहती हैं
बस इतना,
कि जब उसे जरूरत हो किसी के साथ कि
तो उसके बच्चे, पति या पिता
कह सके।
की मैं साथ हूँ तुम्हारे।
वो नही चाहती
बड़ा घर, बड़े सपनों का पूरा होना
वो औरत है
कम में भी खूबसूरत बना दिया करती है
घर को,
इंसान को,
समाज को,
और आने वाली पीढ़ियों को।
उसे मिल जाये अगर
उसके बदले की ज़िंदगी
जो हमने
अनजाने में छीन ली है उससे
उसे जिम्मेदारियों में झोंक कर
बस वो लौटा दें,
तो नही मनाने पड़ेंगे,
महिला दिवस, माता दिवस
उनका हर दिन मातृ दिवस और हर दिन
महिला दिवस हो जाएगा।
वो बस खुद को खोना नही चाहती
बस इतना ही चाहती हैं,
औरते,
महिलाएं
और
मां।

संजीत’समवेत’

नरेंद्रनगर टिहरी गढ़वाल

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