कविता
उस रोज़ क्या करोगी तुम?
“हरदेव नेगी”
जब सारा लम्हा तुमसे दूर हो जायेगा,
प्रेम की आशाओं का भरा समंदर सूख जायेगा,
जब तुम खुद के खयालों में बिखर जाओगी,
सच्च बताओ,
उस रोज़ क्या करोगी तुम ?
इंतज़ार में तड़पी आँखें जब थक जायेंगी,
बार – बार खिड़की पर आके रूक जायेंगी,
जब हर तरफ निराशा का बादल छाया होगा,
तुम्हारी चाहत पर किसी और का साया होगा,
जब ये सारी बातें कानों में चुभ जायेंगी,
तेज आँधियां तुम्हें खिड़की से बिस्तर पर धकेल देंगी,
सच्च बताओ,
उस रोज़ क्या करोगी तुम?
जब प्यार के गीतों से नफ़रत की आग सुलगने लगेंगी,
जब रातें अकेलेपन से उलझने लगेंगी,
जब पुरानी बातों को याद करके मन रुआँसा जायेगा,
जब पहले पहले प्यार की छुँवन के सपनों से
बदन कँपकपाँ सा जायेगा,
जब फोन की घंटियाँ काँटों सा चुभने लगेंगी,
सच बताओ,
उस रोज़ क्या करोगी तुम?
जब धधकती लपटों में एहसासों की कमी खलेगी,
जब चेहरे पर नाराजगियों की सिलवटें पसरेंगी,
जब उसकी चाहत की बिंदिया माथे से खुद ही गिर जायेगी,
जब बिन नेल पाॅलिश के पैरों की उंगलियों में वीरानी छायेगी,
हर वो चीज जिससे सँवरकर वो तुम तक आ जाता था,
आज उन्हीं लिबाजों से कुछ कतरे जब जलने लगेंगे,
सच बताओ,
उस रोज़ क्या करोगी तुम?
(मेरी आने वाली हिंदी किताब का एक हिस्सा।)
हरदेव नेगी, गुप्तकाशी (रुद्रप्रयाग)