कविता
“स्त्रियां नहीं होती उम्रदराज”
सृजिता सिंह (सिया )
सुनो जानते हो.. ..
….हाँ स्त्रियां नहीं होती
किसी उम्र की मोहताज,,
नहीं होती, सोलह, तीस,
चालीस या अस्सी साला…
हाँ जानते हो यौवन होगा
भरपूर एक तरुणी में..
एक प्रेयसी या आकाश विहारिणी
हर खरखराती नजर में..
हाँ गिद्ध दृष्टि वहाँ नहीं ढूंढती
यौवनोचित्त आकर्षण,,
वहाँ होती है तो बस स्त्री और
स्खलन तक होता है एक पुरुष..
प्रदेश हों घाटियां या तराई..
वो बेशक ऊगा ले अपनी फसलें..
हाँ उमंगों की फसल..
मगर नहीं ढूंढती कभी
कोई मुफीद जगह..
क्यूंकि जानती है..
बंजरता में भी उष्णता और
नमी के स्रोत खोजना है …
इसलिए मुकम्मल होने को उन्हें
नहीं होती जरुरत
उम्र के विभाजन की….
स्त्री हर उम्र में है मुकम्मल..
मत खोजना कभी उसे
झुर्रियों की दरारों में,,
मत छूना उनकी देहदृष्टि से परे..
उसकी भांवनाओं के हरम को .
न खोजना कभी और..
न ही विभाजित करना..
सोलह, चालीस..
या पचास की उम्र में…
मत खोजना उम्र में..
उसके अस्तित्व को…
…
…
क्रमशः…..
……
“सिया”
“झल्ली पहाड़न “
सृजिता सिंह (शिमला हिमांचल )