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“हरा समंदर गोपी चंदन”

आलेख

“हरा समंदर गोपी चंदन”

प्रतिभा नैथानी

महिला दिवस पर विशेष

“जब तक गौरा देवी जीवित रहीं पहाड़ फलता-फूलता गया। दुनिया भर में जहां हरे पेड़ों पर आरी चलने की बात आई प्रकृतिप्रेमियों का सबसे आसान और सशक्त हथियार बना “चिपको आंदोलन” । लेकिन उनके जाने के बाद जैसे फिर गिद्धों की नजर पड़ गई पहाड़ पर।”

छोटी कन्याओं में देवी रूप देखने की मान्यता हमेशा से पहाड़वासियों में रही है । बद्री-केदारखंड वाले गढ़वाल भूभाग की इष्ट देवी हैं- नंदा भगवती। भगवती के नाम पर कन्या बालिकाओं का नाम रखने का चलन वहां घर-घर में है।
ऐसे ही रुद्रप्रयाग जनपद के सीमांत गांव “लाता” में एक कन्या का जन्म हुआ सन 1925 में। लड़की का नाम रखा गया- “गौरा”। पहाड़ की सभी सामान्य आम लड़कियों की तरह ही मात्र बारह वर्ष की आयु में ही गौरा का विवाह हो गया। ससुराल पड़ता था रैणी गांव में। पति भेड़-बकरियों का छोटा सा व्यवसायी था। दस साल के दांपत्य में एक पुत्र प्राप्ति के बाद एक दिन गौरा के पति का देहांत हो गया। भारत के सीमांत गांवों और तिब्बत के बीच नमक, मसाले, जड़ी-बूटियां और भेड़-बकरियों के आदान प्रदान को भोटिया व्यापार कहा जाता है । इधर भारत-चीन लड़ाई के बाद भोटिया व्यापार भी प्रतिबंधित हो गया था। अब किस तरह जिंदगी की नैया पार लगे। एकाकी गौरा को तब सहारा दिया हिमालय ने । जंगल से घास- पात- लकड़ी लाने में उसके दिन कटने लगे। 1962 के युद्ध में चीन से पराजय के बाद सामरिक दृष्टि से मजबूत होने के लिए भारत ने अपने सीमांत गांवों को भी सड़क से जोड़ना आवश्यक समझकर अंतिम गांव माणा के साथ-साथ गौरा देवी के रैणी गांव में भी सड़क प्रस्तावित कर दी। गांव वालों को सड़क से एतराज नहीं था, लेकिन जो मार्ग चिन्हित किया गया था उस पर इक्कीस सौ बहुमूल्य पेड़ों का कटान होने के बाद ही सड़क मार्ग बन सकता था। गौरा देवी ने इसका विरोध किया। उन्होंने गांव के लोगों को समझाया कि ये पेड़-पौधे हमारे माई- बाप हैं। हमें इन्हें कटने से बचाना ही होगा। महिलाओं को यह बात तुरंत समझ में आ गई, क्योंकि जंगल से ज्यादा वास्ता उन्हीं का पड़ता है । मगर पुरुषों को इस हरियाली से ऊपर नोटों की हरियाली दिखाई दे रही है, सरकारी कर्मचारियों ने यह बात अच्छे से समझ ली। 25 मार्च 1974 में एक रणनीति के तहत यह तय हुआ कि एक निश्चित तिथि पर गांव की सभी पुरुषों को मुआवजा लेने जिला मुख्यालय गोपेश्वर बुला लिया जाए। तब गांव में सिर्फ महिलाएं रह जाएंगी, और ठेकेदार के कर्मचारी कटान के लिए चिन्हित पेड़ों को आसानी से काट कर वापस आ जाएंगे। इधर गौरा देवी इस बात को समझ गईं। गांव की सत्ताइस अन्य महिलाओं को लेकर वह जंगल आ गईं। ठेकेदार के लोग भी आरी लेकर पहुंच चुके थे। लेकिन महिलाएं अड़ गईं कि हमारे मर्द घर पर नहीं है, इसलिए उनके आने तक तुम रुक जाओ। मगर क्या ठेकेदार के लोग रुकने को आए थे। यह मौका तो उन्होंने खुद मुहैया करवाया था। उन्हें तो किसी भी हाल में आज जंगल साफ करना था। वह नहीं रुके और आगे बढ़ते गए। बात जब हद से ज्यादा बढ़ गई तो ठेकेदार ने बंदूक निकाल ली । निडर गौरा लिपट गई एक पेड़ से। उन्होंने कहा -“मारो गोली ! खत्म कर दो हमको ! और काट लो हमारा मायका” । उनकी देखा-देखी बाकी सब महिलाएं भी लिपट गईं पेड़ों से। मजदूर आगे बढ़े, लेकिन पेड़ों से लिपटी ममतालु स्त्रियों के हाथ की दराती ने उन्हें दक्ष प्रजापति का यज्ञ भंग करती क्रुद्ध नंदा भगवती के साक्षात दर्शन करा दिए। पेड़ों को उनकी मां मिल गई थी। फिर किसकी मजाल जो मां की गोद में दुबके हुए बच्चे को बुरी नजर से देख सके। ठेकेदार समेत सारे मजदूर भाग खड़े हुए ।


” पेड़ों से हमें ऑक्सीजन मिलती है। इससे हमारा वातावरण शुद्ध होता है”, यह बहुत बाद की बात है। अपनी जान की परवाह किए बगैर पेड़ों से चिपककर उन्हें बचाने की पीछे की भावना में बसता है वह विश्वास जिसमें ये पेड़-पौधे, ये जंगल किसी को भूखा नहीं मरने देते। जानवरों के लिए घास-पात और ईंधन के लिए जलौनी लकड़ियों के सिवा हमें कई प्रकार के फल-सब्जी और औषधियां भी मिलती हैं वृक्षों से ।
सुनहरे रंग के बहुत छोटे-छोटे फलों का नाम है -‘हिसालु’। कांटेदार झाड़ियों में उगता है। बड़ी मुश्किल से तोड़कर किसी चौड़ी पत्ती की कटोरी में बहुत नाजुकी से इकट्ठा किया जाता है इन्हें। मैं क्या कहूं कि इनका स्वाद क्या होता है ! अमृत अगर कुछ है तो वो हिसालु का रस है ।
बड़े-बड़े पेड़ों पर लगते हैं बेड़ु और तिमुलु के फल। बेड़ु बहुत छोटे आकार का गहरे बैंगनी रंग का फल होता है। तिमुलु जरा सा बड़े आकार का होता है । बेड़ु सबके नसीब में नहीं। तोड़ने के लिए पेड़ की बहुत ऊंचाई तक जाना जरूरी है। हां,तिमुलु को लोग अंजीर से भी समझ सकते हैं। वहीं बादाम का विकल्प है चीड़ के पेड़ों के फल से मिलने वाली ‘गिरी’। जगह-जगह खिले लाल रंग के बुरांश फूलों से बनता है पहाड़ का रूह-आफ़्जा बुरांश जूस। इसी तरह एक फल होता है काफल, जो प्राकृतिक रूप से सिर्फ जंगलों में मिलता है। । सरसों का तेल और नमक लगाकर खाए जाते हैं इसके फल। तोड़कर कभी बाजार ले आओ बेचने के लिए तो हाथ आएंगे सूखे मुरझाए फल।
‘मालू’ पत्तियों का एक बहुत बड़ा झाड़ है, जो पके हुए भोजन को गर्म रखने के लिए आधुनिक फ्वाइल पेपर का बहुत बढ़िया विकल्प हैं। साथ ही इसके औषधीय गुण भी उस भोजन में शामिल हो जाते हैं जो इसमें लपेट कर रखा गया हो। इसी पेड़ से एक पल भी प्राप्त होता है, ‘टांटी’। जंगल में घास लेने को गई महिलाएं साथ में टांटी भी लेकर आती हैं। आग में भूलने को डाल दीजिए। फली के अंदर सिंका हुआ फल ! अहा ! जिसने खाया हो वही जानता है ये अद्भुत स्वाद । इसी तरह के ठेठ पहाड़ी स्वाद वाले घिंघारु और भेमल के फल भी हैं। इसके अलावा सेमल,क्वीराल समेत कई अन्य वृक्ष सब्जियों का बहुत बेहतरीन श्रोत हैं
अच्छा ! यह तो हो गई खाने की बात। अब पीने के लिए जंगल देता है हमें बांज के पेड़ों की जड़ों से निकलता हुआ अद्भुत पानी। अद्भुत इसलिए कि सर्दियों में गुनगुना और गर्मियों में ठंडा होना इसकी प्राकृतिक विशेषता है। अब जहां सड़क नहीं वहां पीने के पानी के नल की कल्पना हो सकती है ? इसलिए अगर जंगल कट जाएं तो पीने का पानी कहां से मिलता ?
इन्हीं औषधीय कल्पवृक्षों की संजीवनी थी जो संन्यास लेकर वनगमन को गए हमारे पूर्वजों को सालों-साल जीवित रखती थी। देवदार के पेड़ों से निकली शुद्ध वायु के सेवन में इतनी शक्ति होती है कि जब आप चाहें तभी प्राण निकलें, वरना किसी रोग-व्याधि की तो कोई बिसात ही कहां जो मृत्यु का बहाना बन सके।
तो ऐसे में अपने हरे-भरे संसार को कटने से बचाने के लिए क्या करेंगे आप ! वही ना जो गौरा देवी ने किया । जंगल बचाने के खातिर अपना सर्वोच्च बलिदान देने को तैयार हो गई।
दुनिया ने यह बात तब जानी जब बीबीसी लंदन ने इसे प्रसारित किया। यकीन करना मुश्किल था कि धरती में कहीं ऐसे भी लोग हैं जो जंगल बचाने के खातिर अपनी जान देने को तैयार हो गये।
होंगे क्यों नहीं ! वह पंचप्रयाग की मिट्टी के लोग थे। जहां खड़िया से गोपी-चंदन बनाया जाता था। गोपी-चंदन गोपियों के पैरों की धूल का तालाब से निकली मिट्टी का तिलक है जिसके स्पर्श मात्र से माना जाता है कि लगाने वाले को सीधे बैकुंठधाम प्राप्त होता है।
इस गोपी-चंदन के बदले में पंच-प्रयाग (देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, विष्णुप्रयाग, नंदप्रयाग) की यात्रा पर आने वाले तीर्थयात्रियों से यहां के निवासी बड़ी-बड़ी सुइयां लिया करते थे। भेड़ की ऊन से बुने हुए कंबलनुमा कपड़ों को हाथ से सिलने के लिए यही बड़ी सुईयां ही सुविधाजनक होती थीं । बर्फीला और अत्यधिक ठंडा इलाका होने के कारण आज तक भी यहां की औरतों को इन्हें मोटे पारंपरिक वस्त्रों में देखा जा सकता है।
तब आज की तरह नहीं था कि बड़ी-बड़ी, लंबी-लंबी गाड़ियों में वहां लाखों की भीड़ जा रही है। बद्रीनाथ और केदारनाथ के पर्वत शिखरों के बीच मात्र अढ़ाई कोस की दूरी है, मगर मापने में लग जाते थे नौ दिन। अधिकतर लोग पैदल चलकर तीर्थयात्रा का पुण्य अर्जन करना उचित समझते थे। यात्रा मार्ग का मुख्य पड़ाव श्रीनगर (गढ़वाल) से बद्रीनाथ तक पहुंचने में लगभग अट्ठारह दिन लग जाते थे। इस तरह लंबे-लंबे अंतराल पर थोड़े-थोड़े तीर्थयात्रियों के सुई लेकर आने की प्रतीक्षा में खड़िया मिट्टी से गोपी-चंदन तैयार करते हुए लोग ! कितना सुंदर,कितना सरल, कितना सहज दुर्गम पहाड़ वासियों का यह सुगम व्यापार !
जब तक गौरा देवी जीवित रहीं पहाड़ फलता-फूलता गया। दुनिया भर में जहां हरे पेड़ों पर आरी चलने की बात आई प्रकृतिप्रेमियों का सबसे आसान और सशक्त हथियार बना “चिपको आंदोलन” । लेकिन उनके जाने के बाद जैसे फिर गिद्धों की नजर पड़ गई पहाड़ पर। अब अनेक-अनेक पावर प्रोजेक्ट वहां स्थापित हो रहे हैं। ऑलवेदर रोड बनने से प्रतिवर्ष लाखों लोग चारधाम की यात्रा के लिए पहुंच रहे हैं। जल्दी और आराम से पहुंचने की चाह में हवाई यातायात भी चरम पर है। कोई माने या ना माने लेकिन बहुसंख्य आवाजाही में सांसों की कार्बन-डाइ-ऑक्साइड की गर्मी के कारण हिमखंड निश्चित रूप से आंच पाते होंगे । ग्लेशियर पिघलने से तपोवन में आई हालिया बाढ़ ने गौरा देवी के गांव को भी तबाह कर दिया है। लोग अपने घरों में जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे। वहां से बाहर किसी सुरक्षित ठिकाने की गुहार लगाते गौरा देवी जी के बेटे को टीवी पर देखा। पुरानी बदरंग हाफ स्वेटर और उसी तरह के शेष पहनावे में वे पहाड़ों की बदहाली की कहानी सुनाते हैं। चेहरे पर है तो सिर्फ और सिर्फ गौरा देवी का बेटा होने की गर्व की भावना। सरकार ने गौरा देवी को कभी कुछ दिया ? उनके पोते से जब पूछा जाता है तो वह फीकी हंसी हंसते हुए कहता है – “सरकार के लोग तो कई बार आए। चाय-नाश्ता किया और चले गए”।
तो क्या आया गौरा देवी के हिस्से में ? सिर्फ नाम? उन्हें शायद ही इस बात से कभी मतलब रहा होगा कि दुनिया उनको जानती है। निस्वार्थ भाव से उन्होंने हमेशा अपने जंगलों को पाला-पोसा। उनके जीते जी पहाड़ सुरक्षित रहे। मगर उनके जाने के बाद सब जानते हैं कि क्या-क्या तबाही मची पहाड़ पर !
जिन्हें सभ्य समाज के सामने कायदे से अपनी बात तक बोलनी नहीं आती थी,उन्होंने जंगल बचा लिया । मगर जो तथाकथित पर्यावरण प्रेमी मंच से इतनी बड़ी-बड़ी बातें करते हैं, उनसे कुछ ना हो सका। चिपको आंदोलन जैसा सार्थक क्या कुछ पा सका पहाड़ गौरा देवी के बाद ? विरोध का एक भी स्वर क्या बचा सका हमें एशिया का सबसे बड़ा बांध बनाने के लिए टिहरी का समूचा शहर डुबाने से, केदारनाथ में आई आपदा या कि फिर तपोवन में आई आकस्मिक बाढ़ से ?
दुनिया के किसी भी पढ़ी-लिखी शक्ति-संपन्न महिला को हम बाद में पूजेंगे। पहले हम सलाम करते हैं हमारे पहाड़ों की मां गौरा देवी को। ऐसी एक भी महिला अगर फिर हो जाए तो महिला दिवस पर उदाहरण खोजने की जरूरत नहीं पड़ेगी। हमारा नमन, हमारा वंदन गोपी-चंदन की मिट्टी में जन्मी पहाड़ों के हरे समंदर की संरक्षिका मां गौरा देवी को ।

प्रतिभा नैथानी

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