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………….अलविदा 2021

आलेख

………….अलविदा 2021

नीरज कृष्ण

यादों के सिरहाने पर, मै सिर रखकर के सोया हूँ
गिनता हूँ बीते लम्हों में, क्या पाया हूँ, क्या खोया हूँ ???

एक और वर्ष विदा हो रहा है और एक नया वर्ष चौखट पर खड़ा है। उम्र का एक वर्ष खोकर नए वर्ष का क्या स्वागत करें? पर सच तो यह है कि वर्ष खोया कहां? हमने तो उसे जीया है और जीकर हर पल को अनुभव में ढाला है। अनुभव से ज्यादा अच्छा साथी और सचाई का सबूत कोई दूसरा नहीं होता।

अपनी याददाश्त में सबसे कठिन साल 2021 बीता जा रहा है। नया साल 2022 आने को आतुर है। लेकिन क्या बीत रहे साल को कभी कोई भुला सकेगा ? शायद कभी नहीं। अमूमन नये साल का केलेंडर हाथ में आते ही बीता साल नेपथ्य में चला जाता है। पहले जिस केलेंडर की तारीखें और महीनों के पन्ने कब पलट गये इसका भान भी नहीं रहता था परंतु अबकी बार ऐसा नहीं हुआ। साल 2021 ने दुनिया को कोरोना-वायरस के रूप में जो दर्द दिया है उसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद की सबसे बड़ी त्रासदी निरूपित किया जा रहा है।

मानवीय इतिहास में बीते दो वर्ष बहुत दुर्लभ किस्म के रहे हैं। हमने नया साल यानी 2021 बड़ी सकारात्मक सोच के साथ आरंभ किया था, लेकिन कोरोना ने उस पर चोट कर दी। 2022 भी हमें ओमिक्रोन को लेकर चेतावनी दे रहा है। ये गंभीर, किंतु क्षणिक चुनौतियां हैं और कुछ कदम उठाकर हम इस खतरे को मात देकर न केवल नए साल में सकारात्मकता के साथ प्रवेश करेंगे, बल्कि एक बेहतर भविष्य की आस भी लगा सकते हैं। अगला साल प्रत्येक भारतीय के लिए बहुत महत्वपूर्ण होगा, क्योंकि इसके साथ ही भारतीय स्वतंत्रता की शताब्दी पूरे होने में एक चौथाई समय शेष रह जाएगा, जो 2047 में पूरा होगा। इसके लिए आवश्यक होगा कि हरेक भारतवासी गहरी समझ, आत्मविश्लेषण और कर्मठता का मंत्र अपनाए।

वर्तमान में भारत की औसत आयु लगभग 29 वर्ष है। यानी हम दुनिया के सबसे युवा देशों में से एक हैं, लेकिन जब 2047 में भारत स्वतंत्रता के 100वें पड़ाव पर पहुंचेगा, तब ऐसी स्थिति नहीं रह जाएगी। हमारी अनुमानित आबादी 169 करोड़ होगी और प्रत्येक पांचवां भारतीय वरिष्ठ नागरिक की श्रेणी में होगा, जिनकी संख्या करीब 34 करोड़ होगी, जबकि स्वतंत्रता के समय भारत की आबादी ही 34 करोड़ थी। यह परिदृश्य हमारे समक्ष कई चुनौतियां उत्पन्न करता है। पहली, सेवानिवृत्त लोगों की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति। दूसरी, एक बड़ी तादाद में रोजगारों पर आटोमेशन से संकट खड़ा हो जाएगा। तीसरी, हम जो बुनियादी ढांचा खड़ा कर रहे हैं, उसके लिए हमारे पास भुगतान की क्षमता नहीं होगी। बढ़ती जनसंख्या, रोजगार एवं आमदनी में गिरावट और बढ़ती पूंजीगत आवश्यकताओं के साथ ये सभी चुनौतियां हमें जटिल स्थिति में फंसा देंगी।

एक बार फिर देश के आम मेहनतकश लोगों के लिए तो आने वाला नया साल हर बार की तरह समस्याओं और चुनौतियों के पहाड़ की तरह खड़ा है। आम मेहनतकशों और गरीबों के दुखों और आँसुओं के सागर में बने अमीरी के टापुओं पर रहने वालों का स्वर्ग तो इस व्यवस्था में पहले से सुरक्षित है, वे तो जश्न मनायेंगे ही। मगर अच्छे दिनों के इन्तजार में साल-दर-साल शोषण-दमन-उत्पीड़न झेलती जा रही देश की आम जनता आखिर किस बात का जश्न मनाये? क्यों जश्न मनाये? ‘मेरा देश महान्’ के स्थान पर ‘मेरा देश परेशान’ ही नजर आता है। गलतफहमियां पनपनी नहीं चाहिए, क्योंकि इसी भूमिका पर विरोधी विचार जन्म लेते हैं। गलत धारणाओं को मिटाने के लिए शत्रु को पीठ पीछे नहीं, आमने-सामने रखें।

कार्य की शुरुआत गलत नहीं होनी चाहिए। अन्यथा गलत दिशा में उठा एक कदम ही हमारे लिए अंतहीन भटकाव पैदा कर देगा। यदि हम कार्य की योजना, चिंतन और क्रियान्विति यदि एक साथ नहीं करेंगे तो वहीं के वहीं खड़े रह जायेंगे जहां दशकों पहले खड़े थे। क्या हमने निर्माण की प्रक्रिया में नए पदचिन्ह स्थापित करने का प्रयत्न किया? क्या ऐसा कुछ कर सके कि ‘आज’ की आंख में हमारे कर्तृत्व का कद ऊंचा उठ सका? आज भी लम्बे-चैड़े वादों और तरह-तरह की घोषणाओं के बावजूद देश के लगभग आधे नौजवान बेकारी में धक्के खा रहे हैं या फिर औनी-पौनी कीमत पर अपनी मेहनत और हुनर को बेचने पर मजबूर हैं?

महाशक्ति बनने का दावा करने वाले इस देश की औरतें- बालिकाएं आए दिन बलात्कार, व्यभिचार एवं शोषण की शिकार हो रही है। लगभग 50 फीसदी स्त्रियाँ ‘खून की कमी’ और 46 फीसदी बच्चे ‘कुपोषण’ के शिकार हैं, भूख और कुपोषण के कारण लगभग 7000 बच्चे रोजाना मौत के मुँह में समा जाते हैं। बजट का 90 फीसदी अप्रत्यक्ष करों द्वारा आम जनता से वसूला जाता है लेकिन आजादी के 74 वर्षों बाद भी स्वास्थ्य, शिक्षा, आवास, पानी, बिजली जैसी बुनियादी सुविधाओं से भी आम जनता वंचित है। प्रान्तीयता, जातीयता और राजनीति के नाम पर लोगों को आपस में लड़ाने का गन्दा खूनी खेल गुजरे सालों में नयी नीचताओं तक पहुँच गया? इसलिए जश्न मनाने का नहीं, संकल्पित होने और शपथ लेने का अवसर है कि भविष्य में ऐसा कुछ नहीं करेंगे जो हमारे, उद्देश्यों, उम्मीदों, उमंगों और आदर्शों पर असफलता का प्रश्नचिन्ह लगा दें।

यदि हमें 2047 तक विकसित देशों को पांत में शामिल होना है तो अधिक प्रति व्यक्ति जीडीपी की दरकार होगी। नई विश्व व्यवस्था में आगे बढ़ने के लिए कोविड ने हमें अपनी प्राथमिकताएं और प्रणालियों को नए सिरे से तय करने की गुंजाइश प्रदान की है। सबसे पहले इस नए वर्ष में संकल्प लें कि 2047 तक भारत को विकसित देश बनाना है। हमारे पास शानदार प्रतिभाएं हैं। उनकी संभावनाएं भुनाने के लिए हमें एक तंत्र बनाना होगा। ऐसा तंत्र जो उन्हें भी आकर्षित करे, जो भारत वापस लौटकर अगले 25 वर्षो के दौरान देश को विकसित बनाने के सपने को साकार करने में मददगार बनें। भविष्य की वृद्धि काफी कुछ इस पर निर्भर करेगी कि हम उसके लिए क्‍या तौर-तरीके अपनाएंगे।

छोटे लक्ष्य भारतीयों को न तो कभी उत्साहित करते हैं और न ही एकजुट। हमने हमेशा ऊंचे लक्ष्य तय कर उन्हें हासिल किया है। फिर चाहे क्रूर साम्राज्यवादी शासन से स्वतंत्रता हो, धाराओं के किरूद्ध तैरकर जीतना हमें बखूबी आता है। इस बार हमारा एकनिष्ठ लक्ष्य होना चाहिए कि अगले 25 वर्षों के दौरान देश को विकसित राष्ट्र बनाना है। हम एक समृद्ध, सतत और खुशहाल भारत चाहते हैं। हमें अपनी दृष्टि, संस्थानों, प्रणालियों, नीतियों, संस्कृति और मानसिकता को परिभाषित कर योजनाबद्ध ढंग से इस मुद्दे का समाधान निकालना है। इन सभी को विकसित भारत मिशन के साथ जोड़ना चाहिए। विकसित भारत मिशन के अंतर्गत हम इसका खाका खींच रहे हैं। अपने आर्थिक मॉडल पर पुनर्दृष्टि के साथ ही हमारी मानसिकता में भी बदलाव आवश्यक है। हमें सभी मतभेद भुलाकर “2047 तक विकसित भारत’ मिशन में जुटना चाहिए। अगर हम इसे संभव नहीं कर सके तो उसमें किसी और का दोष नहीं होगा।

हम तो अहिंसा, नैतिकता एवं ईमानदारी की केवल बातें करते हैं, इनसे राजनीतिक या व्यक्तिगत लाभ उठाते हैं, कुछ तो शुभ शुरुआत करें। क्योंकि गणित के सवाल की गलत शुरुआत सही उत्तर नहीं दे पाती। गलत दिशा का चयन सही मंजिल तक नहीं पहुंचाता। दीए की रोशनी साथ हो तो क्या, उसे देखने के लिये भी तो दृष्टि सही चाहिए। वक्त मनुष्य का खामोश पहरुआ है पर वह न स्वयं रुकता है और न किसी को रोकता है। वह खबरदार करता है और दिखाई नहीं देता। इतिहास ने बनने वाले इतिहास के कान में कहा और समाप्त हो गया। नये इतिहास ने इतिहास से सुना और स्वयं इतिहास बन गया। बेशक, हर नया साल इन सम्भावनाओं से भी भरा हुआ होता है कि हम इस तस्वीर को बदल डालने की राह पर आगे बढ़ें। लेकिन अगर हम बस हाथ पर हाथ धरकर ऐसे ही बैठे रहेंगे और अपनी दुर्दशा के लिए कभी इस कभी उस पार्टी को कोसते रहेंगे या उनके बहकावे में आकर एक-दूसरे को अपनी हालत के लिए दोषी मानते रहेंगे तो सबकुछ ऐसे ही चलता रहेगा, जैसे पिछले सात दशकों से चल रहा है। हर घटना स्वयं एक प्रेरणा है। अपेक्षा है जागती आंखों से उसे देखने की और जीवन को नया बदलाव देने की।

बनया वर्ष हर बार नया संदेश, नया संबोध, नया सवाल लेकर आता है कि बीते वर्ष में हमने क्या खोया, क्या पाया? पर जीवन की भी कैसी विडम्बना! तीन सौ पैंसठ दिनों के बाद भी हम स्वयं से स्वयं को जान नहीं पाये कि उद्देश्य की प्राप्ति में हम कहां खड़े हैं? तब मन कहता है कि दिसम्बर की अंतिम तारीख पर ही यह सवाल क्यों उठे? क्या हर सुबह-शाम का हिसाब नहीं मिलाया जा सकता कि हमने क्या गलत किया और क्या सही किया? उद्देश्य के आईने में प्रतिबिम्बों को साफ-सुथरा रखा जाए तो कभी जीवन में हार नहीं होती। आंख का कोण बदलते ही नजरिया बदलता है, नजरिया बदलते ही व्यवहार बदलता है और व्यवहार ही तय करता है कि आप विजेता बनते हैं या फिर खाली हाथ रहते हैं। इसलिये नया साल जश्न मनाने का नहीं, नजरिया बदलने का अवसर है।

नीरज कृष्ण
(एडवोकेट पटना हाई कोर्ट)
पटना(बिहार)

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