आलेख
माँ…
【14 मई मातृ दिवस】
नीरज कृष्ण
माँ जो बच्चों के मुख से निकला पहला शब्द होता है, और शायद अंतिम भी माँ….जो हर रोज सुबह को जगाती है और शाम को चादर दे सुला देती है, माँ जो हर कुछ में है लेकिन ऎसा व्यक्त करती है मानो कुछ में भी न हो। माँ…… ,माँ जो निराशा में आशा की एक किरण है, चोट में मलहम है, धूप में गीली मिट्टी है और ठण्ड में हल्की सी धूप है, माँ जो कुछ और नहीं….बस माँ है ! बस माँ…….।
दुनिया ही हर चीज झूठी हो सकती है, हर चीज में खोट हो सकता है पर माँ की ममता में कोई खोट नहीं होता है। यूँ तो यह माना जाता है कि किसी भी विषय पर लिखा जा सकता है, अपने भाव को व्यक्त किया जा सकता है और अमूमन ऎसा होता भी है। लेकिन दुनिया में अकेली एक ऎसी चीज है जिसे आज तक कोई भी शब्दों में बाँध नहीं सका है। और उस शय का नाम है ‘माँ’। माँ जो बच्चों के मुख से निकला पहला शब्द होता है, और शायद अंतिम भी माँ….जो हर रोज सुबह को जगाती है और शाम को चादर दे सुला देती है, माँ जो हर कुछ में है लेकिन ऎसा व्यक्त करती है मानो कुछ में भी न हो। माँ…… ,माँ जो निराशा में आशा की एक किरण है, चोट में मलहम है, धूप में गीली मिट्टी है और ठण्ड में हल्की सी धूप है, माँ जो कुछ और नहीं….बस माँ है ! बस माँ…….।
अन्तराष्ट्रीय मातृत्व दिवस सम्पूर्ण मातृ-शवित को समर्पित एक महत्वपूर्ण दिवस है, जो प्रतिवर्ष मई माह के दूसरे रविवार को मनाया जाता है, जिसे मदर्स डे, मातृ दिवस या माताओं का दिन चाहे जिस नाम से पुकारें यह दिन सबके मन में विशेष स्थान लिये हुए है। अमेरिका में मदर्स डे की शुरुआत 20वीं शताब्दी के आरंभ के दौर में हुई। विश्व के विभिन्न भागों में यह अलग-अलग दिन मनाया जाता है। मदर्ड डे का इतिहास करीब 400 वर्ष पुराना है। प्राचीन ग्रीक और रोमन इतिहास में मदर्स डे मनाने का उल्लेख है।
देश तभी सशक्त बन सकता है, जब उसका हर नागरिक सशक्त हो। इसमें भी महिलाओं की भूमिका हो सबसे आगे है। परिवार में एक मां के रूप में वह अपनी यह भूमिका अदा करती है। राष्ट्र निर्माण में उसके इस योगदान का लंबा इतिहास रहा है। विद्वानों का मानना है कि प्राचीन भारत में महिलाओं को जीवन के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ बराबरी का दर्जा हासिल था।
भारतीय संस्कृति में मां के प्रति लोगों में अगाध श्रद्धा रही हैं, यही कारण है कि आधुनिक तरीकों से मनाये जाने वाले मातृत्व दिवस के प्रति भी लोगों में अपूर्त उत्साह है। मातृ दिवस-समाज में माताओं के प्रभाव व सम्मान का उत्सव है। मां शब्द में संपूर्ण सृष्टि का बोध होता है। मां के शब्द में वह आत्मीयता एवं मिठस छिपी हुई होती है, जो अन्य किसी शब्दों में नहीं होती। मां नाम है संवेदना, भावना और अहसास का। मां के आगे सभी रिश्ते बौने पड़ जाते हैं। मातृत्व की छा में मां न केवल अपने बच्चों को सहेजती है बल्कि आवश्यकता पड़ने पर उसका सहारा बन जाती है। संतान के लालन-पालन के लिए हर दुख का सामना बिना किसी शिकायत के करने बाली मां के साथ बिताये दिन सभी के मन में आजीवन सुखद व मधुर स्मृति के रूप में सुरक्षित रहते हैं। पूरी जिंदगी भी समर्पित कर दी जाए तो मां के ऋण से उऋण नहीं हुआ जा सकता है।
‘मां!’ यह वो अलोकिक शब्द है, जिसके स्मरण मात्र से ही रोम-रोम पुलकित हो उठता है, हृदय में भावनाओं का अनहद ज्वार स्वतः उमड़ पड़ता है और मनो मस्तिष्क स्मृतियों के अथाह समुद्र में डूब जाता है। ‘मां’ वो अमोध मंत्र है, जिसके उच्चारण मात्र से ही हर पीड़ा का नाश हो जाता है। ‘मां’ की ममता और उसके आंचल की महिमा को शब्दों में बयान नहीं किया जा सकता है, उसे सिर्फ महसूस किया जा सकता है। जिन्होंने आपको और आपके परिवार को आदर्श संस्कार दिए। उनके दिए गए संस्कार ही मेरी दृष्टि में हमारी मूल थाती है। जो हर मां की मूल पहचान होती है। हर संतान अपनी मां से ही संस्कार पाता है। लेकिन मेरी दृष्टि में संस्कार के साथ-साथ शक्ति भी मां ही देती है, इसलिए हमारे देश में मां को शक्ति का रूप माना गया है और वेदों में मां को सर्वप्रथम पूजनीय कहा गया है।
अथर्व॑वेद में कहा गया है कि “माता भूमिः पुत्रों अहं पृथिव्या:’ अर्थात भूमि मेरी माता है और हम इस धरा के पुत्र हैं। ऋगवेद और उपनिषद जैसे ग्रंथ कई महिला साध्यियों और संतों के बारे में बताते हैं जिनमें गा्गीं और मैत्रेयी के नाम उल्लेखनीय हैं। भारतीय जन-जीवन की मूल धुरी नारी है। यदि यह कहा जाए कि संस्कृति, परम्परा या धरोहर नारी के कारण हो पीढ़े दर पीढ़ी हस्तान्तरित हो रही है, तो यह अतिशयोक्ति नहीं होगी। जब-जब समाज में जड़ता आयी है, नारी शक्ति ने ही उसे जगाने के लिए, उससे जूझने के लिए अपनी सनन्तति को तैयार करके, आगे बढ़ने का संकल्प दिया है।
हमारे वेद, पुराण, दर्शनशास्त्र, स्मृतियां, महाकाव्य, उपनिषद आदि सब ‘माँ’ की अपार महिमा के गुणगान से भरे पड़े हैं। असंख्य ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों, पंडितों, महात्माओं, विद्वानों, दर्शनशास्त्रियों, साहित्यकारों और कलमकारों ने भी ‘माँ’ के प्रति पैदा होने वाली अनुभूतियों को कलमबद्ध करने का भरसक प्रयास किया है। इन सबके बावजूद ‘माँ’ शब्द की समग्र परिभाषा और उसकी अनंत महिमा को आज तक कोई शब्दों में नहीं पिरो पाया है।
प्रायः कई लोगों को यह शिकायत रहती है कि शास्त्रकारों ने स्त्रियों की बड़ी निंदा की है। पर यदि गहनता से हम अपने धार्मिक ग्रंथों की विवेचना करते हैं तो हम पाते हैं कि शास्त्रों में स्त्रियों को दो भिन्न रूपों में देखा गया है पहली ‘कामिनी-रूप’ और दुसरे ‘मातृ-रूप’। शास्त्रों में कामिनी-रूप की निंदा की गयी है, मातृ-रूप में तो स्त्री को पुरुष से सहस्त्रगुणा श्रेष्ठ माना गया है।
मनुस्मृति में तो मातृरूप को लेकर वर्णित है –‘उपाध्यायान्दशाचार्य आचार्यानाणा शतं पिता / सहस्त्रं तु पितृन्माता गौर्वेंनातिरिच्याते’ अर्थात उपाध्यायों की अपेक्षा आचार्य, सौ आचार्यों की अपेक्षा पिता और सहस्त्र पिताओं की अपेक्षा माता का गौरव अधिक है।
जहाँ एक तरफ श्रीमदभगवद्गीता में वर्णित है कि हाड–मांस की शरीर वाली स्त्री तो बहुत दूर की बात है लकड़ी से बनी स्त्री का भी स्पर्श नहीं करनी चाहिए हाँथ तो क्या पैर से भी नहीं-‘पदापि युवतीं भिक्षुर्ण स्प्रिशेद दारवीमपि’, परंतु उसी भिक्षुक को यह भी निर्देश दिया जा रहा है कि यदि उसकी माँ सामने है तो उसे आदरपूर्वक प्रणाम करें ‘सर्ववंद्देंन प्रसू वेर्न्द्धा प्रयत्रतः’।
सभी गुरुओं में श्रेष्ठ, “माँ” को ही परम गुरु मानते हुए कहा गया है- ‘गुरुणां चैव सर्वेषां माता परमको गुरु:’
रामायण में श्रीराम अपने श्रीमुख से ‘माँ’ को स्वर्ग से भी बढ़कर बताते हुए कहते हैं- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।‘ अर्थात, जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।
महाभारत में जब यक्ष, धर्मराज युधिष्ठर से सवाल करते हैं कि ‘भूमि से भारी कौन?’ तब युधिष्ठर जवाब देते हैं-‘माता गुरुतरा भूमेरू।‘ अर्थात, माता इस भूमि से कहीं अधिक भारी होती हैं। महाभारत में अनुशासन पर्व में पितामह भीष्म कहते हैं कि ‘भूमि के समान कोई दान नहीं, माता के समान कोई गुरु नहीं, सत्य के समान कोई धर्म नहीं और दान के समान को पुण्य नहीं है।’
महाभारत के रचियता महर्षि वेदव्यास ने ‘माँ’ के बारे में लिखा है- ‘नास्ति मातृसमा छाया, नास्ति मातृसमा गतिः। / नास्ति मातृसमं त्राण, नास्ति मातृसमा प्रिया।।‘ अर्थात, माता के समान कोई छाया नहीं है, माता के समान कोई सहारा नहीं है। माता के समान कोई रक्षक नहीं है और माता के समान कोई प्रिय चीज नहीं है।
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपनी कालजयी रचना ‘सत्यार्थ प्रकाश‘ के प्रारंभिक चरण में ‘शतपथ ब्राह्मण’ की इस सूक्ति का उल्लेख कुछ इस प्रकार किया है- ‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामः / मातृमान् पितृमानाचार्यवान पुरूषो वेदः।‘ अर्थात, जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तो तभी मनुष्य ज्ञानवान होगा। ‘माँ’ के गुणों का उल्लेख करते हुए आगे कहा गया है- ‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान।‘ अर्थात, धन्य वह माता है जो गर्भावान से लेकर, जब तक पूरी विद्या न हो, तब तक सुशीलता का उपदेश करे।
‘चाणक्य−नीति’ के प्रथम अध्याय में भी ‘माँ’ की महिमा का बखूबी उल्लेख मिलता है- ‘रजतिम ओ गुरु तिय मित्रतियाहू जान। / निज माता और सासु ये, पाँचों मातृ समान।।‘ अर्थात, जिस प्रकार संसार में पाँच प्रकार के पिता होते हैं, उसी प्रकार पाँच प्रकार की माँ होती हैं। जैसे, राजा की पत्नी, गुरु की पत्नी, मित्र की पत्नी, अपनी स्त्री की माता और अपनी मूल जननी माता।
किसी भी सभ्यता एवं संस्कृति में माँ का स्थान सदैव सर्वोच्च रहा है और शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति होगा जिसने माँ के प्रति अपनी भावनाओं को व्यक्त करते हुए अपनी कृतज्ञता और अदारंजलिन व्यक्त किया हो, भले ही वह कोई साहित्यकार या कवि हो अथवा न हो।
एच.डब्लू बीचर के अनुसार, ‘जननी का हृदय शिशु की पाठशाला है।’ कालरिज का मानना है, ‘जननी जननी है, जीवित वस्तुओं में वह सबसे अधिक पवित्र है।’ नेपोलियन बोनापार्ट के अनुसार, ‘शिशु का भाग्य सदैव उसकी जननी द्वारा निर्मित होता है।’ रूडयार्ड किपलिंग के अनुसार, ‘भगवान हर जगह नहीं हो सकते, और इसलिए उन्होंने माता को बनाया’। होनोर डी बाल्ज़ाक,‘एक माँ का दिल अंदर से बहुत ही गहरा होता है जिसमें आप हमेशा क्षमा प्राप्त करेंगे’।
मैथिलीशरण गुप्त ने अपनी रचना में ‘माँ’ की महिम कुछ इस तरह बयां की- ‘स्वर्ग से भी श्रेष्ठ जननी जन्मभूमि कही गई। / सेवनिया है सभी को वहा महा महिमामयी‘।। अर्थात, माता और मातृभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ कही गई हैं। इस महा महिमामयी जननी और जन्मभूमि की सेवा सभी लोगों को करनी चाहिए। इसके अलावा श्री गुप्त ने ‘माँ’ की महिमा में लिखा है- ‘जननी तेरे जात सभी हम,/ जननी तेरी जय है।‘
‘माँ’ के बारे में किसी ने क्या खूब कहा है, ‘कोमलता में जिसका हृदय गुलाब सी कलियों से भी अधिक कोमल है तथा दयामय है। पवित्रता में जो यज्ञ के धुएं के समान है और कर्त्तव्य में जो वज्र की तरह कठोर है−वही दिव्य जननी है।’
संसार का हर धर्म-संप्रदाय जननी ‘माँ’ की अपार महिमा का यशोगान करता है। हर धर्म और संस्कृति में ‘माँ’ के अलौकिक गुणों और रूपों का उल्लेखनीय वर्णन मिलता है। हिन्दू धर्म में देवियों को ‘माँ’ कहकर पुकारा गया है। धार्मिक परम्परा के अनुसार धन की देवी ‘लक्ष्मी माँ’, ज्ञान की देवी ‘सरस्वती माँ’ और शक्ति की देवी ‘दुर्गा माँ’ मानीं गई हैं। नवरात्रों में ‘माँ’ को नौ विभिन्न रूपों में पूजा जाता है। मुस्लिम धर्म में भी ‘माँ’ को सर्वोपरि और पवित्र स्थान दिया गया है। हजरत मोहम्मद कहते हैं कि ‘माँ’ के चरणों के नीचे स्वर्ग है।’ ईसाइयों के पवित्र ग्रन्थ में स्पष्ट लिखा गया है कि ‘माता के बिना जीवन होता ही नहीं है।’ ईसाई धर्म में भी ‘माँ’ को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। इसके साथ ही भगवान यीशु की ‘माँ’ मदर मैरी को सर्वोपरि माना जाता है। बौद्ध धर्म में महात्मा बुद्ध के स्त्री रूप में देवी तारा की महिमा का गुणगान किया गया है। यहूदी लोग भी ‘माँ’ को सर्वोच्च स्थान पर रखते हैं। यहूदियों की मान्यता के अनुसार उनके 55 पैगम्बर हैं, जिनमें से सात महिलाएं भी शामिल हैं। सिख धर्म में भी ‘माँ’ का स्थान सबसे ऊँचा रखा गया है।
‘माँ’ को अंग्रेजी भाषा में ‘मदर’ ‘मम्मी’ या ‘मॉम’, हिन्दी में ‘माँ’, संस्कृत में ‘माता’, फारसी में ‘मादर’ और चीनी में ‘माकून’ कहकर पुकारा जाता है। भाषायी दृष्टि से ‘माँ’ के भले ही विभिन्न रूप हों, लेकिन ‘ममत्व’ और ‘वात्सल्य’ की दृष्टि में सभी एक समान ही होती हैं। जाहिर है माँ के प्रति आभार व्यक्त करने के लिए एक दिन नहीं बल्कि एक सदी, कई सदियां भी कम है। सभ्यता के विकास क्रम में आदिमकाल से लेकर आधुनिककाल तक इंसानों के आकार-प्रकार में, रहन-सहन में, सोच-विचार, मस्तिष्क में लगातार बदलाव हुए। लेकिन मातृत्व के भाव में बदलाव नहीं आया। उस आदिमयुग में भी मां, मां ही थी। तब भी वह अपने बच्चों को जन्म देकर उनका पालन-पोषण करती थीं। उन्हें अपने अस्तित्व की रक्षा करना सिखाती थी। आज के इस आधुनिक युग में भी मां वैसी ही है। मां नहीं बदली। विक्टर हयुगो ने मां की महिमा इन शब्दों में व्यक्त की है कि एक माँ की गोद कोमलता से बनी रहती है और बच्चे उसमें आराम से सोते हैं।
नीरज कृष्ण पटना(बिहार)