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……….वो‌

उत्तराखण्ड

……….वो‌

आलेख

✍️ राजीव नयन पाण्डेय

  • ” वो ” जिसका नाम उसके घर वाले ने प्यार से रखा था, वो नाम जो स्कूल के दिनों में सबसे प्यारा था, ऐसा नाम जिसका अर्थ, पर्यायवाची शब्दों को बिना रुके ऐसे सुनाती थी जैसे कोई रेलगाड़ी सन्नाटे को चिर कर धड़ धड़ कर सरपट भाग रही हो, बेलगाम।

मां,पत्नी,चाची,भाभी,दादी,नानी,उसकी बहू,छोटू की मम्मी कितने ही औरतों के नाम महीनों या सालों तक पुकारे नहीं गए….. पुकारा गया तो ….वो’ बस यही नामकरण था घर और बाहर उस हाड़,मांस से बनी जिसने अथक परिश्रम से घर ईट सीमेंट बालू से घिरे चारदीवारी को घर बनाया। परिवार, बच्चे की देखभाल और फिर ऑफिस का काम निपुणता से पूरा करने वाली का नामकरण… सिर्फ ‘वो”.

“वो‌” वैसे तो सारा दिन बिना थके अपने दायित्वों का निर्वहन करती थी, परन्तु सुबह से शाम और देर रात तक कभी भी अपना नाम किसी के मुंह से नहीं सुनती थी, सुनती भी तो बस पति देव के मूंह से “ऐ जी सुनती हो”, “बहु” तो सास ससुर के लिए, “अम्मा” बच्चों के मुख से और घर के काम करने वाले कहते “मालकिन” .. और घर के बाहर जो नाम पुकारा जाता “वो” नाम जो कभी अपना था नहीं, वो तो शादी के बाद समाजिक रूढ़िवादी परम्परा के कारण पति की जाति व धर्म के कारण अपनाना पड़ा था।

” वो ” जिसका नाम उसके घर वाले ने प्यार से रखा था, वो नाम जो स्कूल के दिनों में सबसे प्यारा था, ऐसा नाम जिसका अर्थ, पर्यायवाची शब्दों को बिना रुके ऐसे सुनाती थी जैसे कोई रेलगाड़ी सन्नाटे को चिर कर धड़ धड़ कर सरपट भाग रही हो, बेलगाम।

परन्तु “वो” खुश रहती थी तो बस दुसरो की खुशी में ही, वो हर दुसरे के खुशी को अपना समझ कर खुश होती, माने वो खुशी शायद फिर न मिले।
“वो” कभी कभी सोचती थी कि मायका उसका कभी था नहीं, ससुराल उसका था नहीं तो है क्या अपना जिसे हक से अपना कह सकें, परन्तु उसकी सोच शायद ही कभी पुरी हो पाती.. जब कुछ भी सोचना शुरू करती तो कोई न कोई उसको आवाज़ लगाता , परन्तु आवाज में अपनापन कभी नहीं होता … ऐसा लगता जैसे कोई एहसान कर रहा हो‌ ‘ अजी सुनती हो’। आजन्म उसको उसका श्रेय कभी नहीं मिलता जिसकी वो असल में हकदार हैं.. उस तेल और बाती की तरह जो खुद जल कर अंधकार को दूर करते हैं. परन्तु नाम होता है उस दिया का…. . परन्तु उस दिये के तले अंधेरा ही रहता है।.. शास्वत सत्य

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